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मैं हूं भूला-भूत
भूला फिरा मैं सारा जीवन, कहीं न मुझे कोई मार्ग मिला । रहा भटकता यों ही निश दिन, न कहीं देखी कोई सिद्धि शिला ।
नजर न पाया कहीं कोई सिद्धि वाला न कहीं देखा कोई जीवन मुक्त । न मिला कोई भव निर्मोही, न पाया कोई बंधन वियुक्त ॥
यों जीवन को मृग तृष्णा में, भूला फिरा मैं कुछ पाने को । पर हाथ न पाया कुछ मुझको, वृथा ही ढूढा किसी अनजाने को ।।
कोई न मिली सच्ची श्रद्धा देवी, न मिला कहीं कोई पक्का अवधूत। जीवन के अब विलय समय में, में बन रहूँगा भूला - भूत ॥
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