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"नेमिनाथ राजमती बारामासा'' पर एक लेख तैयार कर "जैन श्वेताम्बर कांफ्रेंस हैरेल्ड'में प्रकाशित किया । पाटन से फिर, मुनिजी ने ऋषभदेव की यात्रा की और कपड़वंज आदि स्थानों का भ्रमण करते हुए बड़ौदा में होने वाले साधु सम्मेलन में सम्मिलित हुए । सं. १६७३ का चातुर्मास भी यहीं बड़ौदा में किया। इस दौरान प्रवर्तक कांतिविजयजी के नाम से "जैन ऐतिहासिक ग्रंथ माला'' का प्रारम्भ किया, जिसके लिए आपने "कृपा रस कोश'', 'शत्रुजय तीर्थोद्धार प्रबंध", "जैन शिलालेख संग्रह' भाग प्रथम “जैन ऐतिहासिक गुर्जर काव्य'', 'द्रोपदी स्वयंवर नाटक' आदि ग्रंथों का संपादन किया। इसी वर्ष “गायकवाड़ ओरियण्टल सिरीज़" बड़ौदा के लिए 'कुमारपाल प्रतिबोध'' नामक प्राकृत भाषा के विशाल ग्रंथ का संपादन कार्य भी हाथ में लिया । बड़ौदा से पैदल भ्रमण करते हुए भड़ौंच, सूरत होते हुए बम्बई जा पहुँचे । सं १६.७४ का चातुर्मास यहीं बम्बई में किया। यहाँ इन्हीं दिनों "भण्डारकर ओरियण्टल रिसर्च इंस्टीट्यूट'' पूना का डेपुटेशन आया। जिसने श्रीमुनिजी से विचार-विमर्श कर पूना पाने का प्रस्ताव रखा। पैदल भ्रमण करते-करते सं. १६७५ का चातुर्मास पूना में किया । "भण्डारकर इंस्टीट्यूट'' के कार्य में सहयोग देने की इच्छा से श्रीमुनिजी ने कुछ समय पूना में ही रहने का विचार किया। इस संस्था के भवन बनवाने के निमित्त जैन संघ की ओर से ५०,००० रुपये की व्यवस्था करवाई और इस संस्था के निकट ही श्रीमुनिजी ने 'भारत जैन विद्यालय' नामक संस्था की स्थापना की। इसी बीच भारत की प्रथम प्राच्यविद्या सम्मेलन का
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