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गुरु के सर्व प्रथम दर्शन
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था । उस समय चित्तोड़ जाने वाली गाड़ी रात को एक डेढ़ बजे रूपा - - हेली स्टेशन पर आती थी । सेकंड क्लास के ढाई टिकट लेकर गाड़ी आने पर हम लोग उसमें सवार हुए। गुरु महाराज को बड़ी हिफाजत के साथ खाट से उठाकर सीट पर सुलाया । मैं और धनचन्द यति भी उनके साथ ही बैठे। दो महाजन जो साथ चले थे वे किसी अन्य डिब्बे में बैठे | गुरु महाराज शान्त भाव से लेटे लेटे मन में नमोकार मंत्र का जाप कर रहे थे ।
सामान उतारा
४ ॥ बजे गाड़ी चित्तौड़ पहुँची, हम लोग उतरे, गर्मी के दिन थे । सूर्योदय जल्दी ही होने वाला था । इसलिये एक बिस्तर खोलकर गुरु महाराज को प्लेट फार्म के एक किनारे सुला दिया । थोड़ी ही देर बाद उषा का प्रकाश पूर्वं दिशा में फैलने लगा । गुरु महाराज की दृष्टि चित्तौड़ के किले की तरफ थी । जब सूर्योदय का समय हुआ तो किले का दर्शन बहुत स्पष्ट भव्य रूप से होने लगा । धनचन्द यति तो अपने गांव बानेण में हमको ले जाने के लिये दो गाड़ियों की व्यवस्था करने के लिये स्टेशन से बाहर गये थे, मैं गुरु महाराज के पास बैठा हुआ था । जब सूर्य के प्रकाश में चित्तौड़ का सारा किला अच्छी तरह दिखाई देने लगा और उसमें राणा कुंभा का विजय स्तम्भ भी दिखाई दिया तो गुरु महाराज ने मुझे धीरे से किले की तरफ उँगली दिखाकर कहा " देख वह चित्तौड़ का किला दिखाई दे रहा है और इस किले पर कैसे कैसे यति महात्मा आदि बड़े साधुजन तथा वीर पुरुष आदि हो गये हैं, उसकी कुछ बातें उन्होंने कहीं ।"
मेरे जीवन का यह पहला सुप्रभात था, जिसमें सर्वप्रथम चित्तौड़ के इस महान् राष्ट्रीय तीर्थ का दर्शन करने का सद्भाग्य प्राप्त हुआ और गुरु महाराज के मुख से इस तीर्थ भूमि के महत्व का कुछ आभास मिला । उसी सुप्रभात का यह भव्य दर्शन और स्मरण मेरे जीवन में सदा के लिये ओतप्रोत रहा है, उसी सुप्रभात का वह भव्य दर्शन और स्मरण के निमित्त मैं अपने जीवन के अन्तिम दिन इस पुण्य भूमि में बिताने के लिये अब यहाँ उपस्थित हुआ हूँ ।
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