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________________ जिनविजय जीवन-कथा . ऐसा कहकर मेरे सिर पर बड़े स्नेह से हाथ फेरा और फिर मेरा मुंह पकड़ कर चुंबन किया और फिर उसी तरह उसकी आँखों में से प्राँसू की धारा बह चली, परन्तु शायद किसी अपशकुन की आशंका से मुंह से एक भी शब्द न बोलकर हाथ के इशारे से मुझे विदा होने का संकेत किया । बस हम दोनों मां बेटों का यह अन्तिम मिलन था। इसके बाद न मैं कभी अपने जीवन में मां का मुंह देख पाया और न मां मुझे देख पाई । विधाता का यह एक बहुत क्रू र विधान था, जो हम मां बेटे के जीवन में घटित हुआ। मैं मां का आदेश लेकर शीघ्रता के साथ भरे हुए हृदय से अपनी आँखों के आंसू पोंछता हुआ गुरु महाराज के पास पहुँच गया। उनकी गाड़ी जिसमें वे लेटे हुए थे, उपाश्रय से रवाना होकर गांव के बाहर तालाब के समीप पहुँच गई थी। उन्हें विदा करने गांव के राजपूत, महाजन, ब्राह्मण आदि समाज के मुख्य मुख्य लोग साथ में चल रहे थे। इस प्रकार कोई गांव के एक मील दूर तक वे लोग चलते रहे । बाद में गुरु महाराज ने इशारे से उन भाइयों को नमस्कार करते हुए वापस गांव में जाने की सूचना दी। कुछ पांच सात भाई स्टेशन पर पहुँचाने आये। सात आठ बजे तक हम लोग स्टेशन पर पहुंचे। _____ संध्या हो चुकी थी। गरम लू शान्त हो रही थी। एकादशी का उज्ज्वल चन्द्रमा अपने शीतल प्रकाश से वातावरण को ठंडा बना रहा था। हम लोग स्टेशन पर पहुंचे और गाड़ी में से सामान उतार कर प्लेट फार्म पर रखा । एक खाट जो पहले ही वहां तैयार थी, उस पर गुरु महाराज को लेटा दिया। उनकी हड्डी जो टूट गई थी, उसका दर्द उस समय तक कुछ कम हो गया था, लेकिन जब उनको इधर से उधर सुलाने की क्रिया की जाती थी, तब कुछ विशेष दर्द होता रहता था। पर इस दर्द को वे शान्त भाव से सहन कर लिया करते थे। जब खान पान कराया जाता था, तब कमर और पीठ के नीचे बड़े बड़े तकिये लगाकर उन्हें आराम कुर्सी की तरह प्राधे शरीर पर बैठा दिया जाता था । मल मूत्र का विसर्जन भी इसी प्रकार प्राधे बैठा कर कराया जाता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001967
Book TitleJinvijay Jivan Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherMahatma Gandhi Smruti Mandir Bhilwada
Publication Year1971
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size11 MB
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