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________________ ५४] जिनविजय जीवन-कथा मैं नया कुर्ता पाजामा पहिन कर खुशी-खुशी गुरांसा के साथ रवाना हुआ। वे नये कुर्ते पाजामें में मुझे प्रसन्न देख कर बोले-"वाह तू तो बड़ा अच्छा लग रहा है ।" और उन्होंने मुझे उनकी उँगली पकड़ कर चलने को कहा-मैं तुरन्त उनके दाहिने हाथ की उँगली पकड़ कर उनके साथ चल पड़ा।-“यही वह सर्व प्रथम क्षण है जो मेरे जीवन चक्र को गतिमान बनाने वाला बनता है। ___ रास्ते में उन्होंने मुझे पूछा--'तुम कितने भाई हो ? तुम्हारी कोई बहिन भी है, तुम्हारा ननिहाल कहाँ पर है, तुम्हारी कोई मोसी भी है।"-ऐसी कुछ बातें पूछते गये और मुझे जो कुछ जानकारी थी उसे मैं कहता गया। उपाश्रय पहुँचकर गुरु महाराज अपने आसन पर बैठ गये और अपने कर्मचारी से दवा की वह पेटी मंगाई जिसमें उनकी रोजमर्रा के काम की दवाइयाँ रहती थीं। एक दो छोटी शीशियों निकाली और कागज की तीन पुड़िया बना कर उनमें वह थोड़ी-थोड़ी दवा डाल कर पुड़िया बाँध कर मेरे हाथ में दी और बोले--"बेटा, ये पुड़िया लेजा कर अपनी माँ को देना और मोली छाछ में मिलाकर ठाकुर साब को तीन दफ़े पिला देना ।" मैं उनके पैरों में पड़कर दवा की पुड़िया लेकर घर चला आया . और मां को दे दी। माँ ने उसी समय थोड़ी छाछ में एक पुड़िया मिला कर पिताजी को पिलादी । यतिजी मॉ को कह गये थे कि ठाकुरसा को बाजरे के आटे की छाछ में रँधी हुई राब के सिवाय कोई चीज खाने के लिये न देना। __ उसके बाद गुरू महाराज प्रसंगानुसार हमारे घर पधार जाया करते और पिताजी की अवस्थानुसार दवा वगैरह दे दिया करते । धीरे धीरे पिताजी स्वस्थ होने लगे । यद्यपि उनका वह रोग निर्मूल होने जैसा नहीं था तथापि उसमें बहुत कुछ सुधार होने लगा था। समय समय पर हमारे घर गुरू महाराज आते रहते और हमारे पिता के खानदान की वे बातें सुना करते जो मेरे पिता के बाल्यकाल में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001967
Book TitleJinvijay Jivan Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherMahatma Gandhi Smruti Mandir Bhilwada
Publication Year1971
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size11 MB
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