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जिनविजय जीवन-कथा
चिकित्सा शुरू की और दो तीन माह में ठाकुर साहब को रोग मुक्त कर दिया । गांव के ओसवाल, माहेश्वरी तथा ब्राह्मण आदि के भी यतिजी बड़े श्रद्धा भाजन हो गये और कोई भी रोगी उनके पास जाता तो उसकी वे निष्काम-भाव से चिकित्सा किया करते थे। बहुत-सी औषधियाँ वे स्वयं अपने हाथ से तैयार किया करते थे।
___ मेरे पिता जब बीमार होकर रूपाहेली आये तो दूसरे ही दिन सवेरे ठाकुर साहब उनसे मिलने के लिये हमारे घर पधारे। पिताजी इतने अशक्त थे कि ठाकुर साहब का स्वागत करने के लिये वे खड़े तक न हो सके । ठाकुर साहब उनके पास पलंग पर बैठ गये और बीमारी आदि की बातें पूछने लगे । ठाकुर साहब ने तुरन्त कहा कि यहाँ पर बहुत बड़े वैद्य यति आये हुए हैं। उनका इलाज करने से आप बिल्कुल अच्छे हो जाएंगे। चिन्ता करने जैसी कोई बात नहीं है । मुझे भी इन्हीं ने जीवनदान दिया है । मैं जाकर उनसे प्रार्थना करता हूँ कि वे यहाँ पधार करआपकी अवस्था का परिचय प्राप्त करें, आदि प्रेम भरी मीठी बातें करके ठाकुर साहब वहीं से सीधे यतिजी से उपाश्रय में पधारे और उन्हें मेरे पिता की सारी स्थिति बताई। तब तक मध्यान्ह हो चुका था, कुछ गर्मी भी अधिक थी। इसलिये यतिजी हमारे घर पिताजी को देखने न आ सके और एक जैन महाजन द्वारा कहलाया कि मैं कल सुबह ज़रूर देखने आऊँगा।
दूसरे दिन सवेरे प्रातः ८ बजे एक प्रोसवाल महाजन, जिनका संबंध हमारे परिवार के साथ लेन देन आदि का रहता था, उनको साथ लेकर यतिजी महाराज हमारे घर पधारे । गवाड़ी में प्रवेश करते ही माँ ने सामने जाकर उनके चरणों में मस्तक नवाया । मैं भी उनके पैरों पड़ा । ज्योंही मैं उठा और हाथ जोड़े उनके सामने खड़ा हुआ त्योंही मेरी तरफ बड़ी मधुर दृष्टि से देखकर बोले-"बेटा ! तेरा नाम क्या है ?"
मैंने हाथ जोड़े हुए कहा--"रिणमल ।"
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