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गुरू के सर्व प्रथम दर्शन
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होकर जब वे आए तो संध्या हो चुकी थी । मेरी माँ घर में देव मूर्ति ' के सामने दीप जलाकर हमेशा की तरह कुछ प्रार्थना कर रही थी। मैं भी माँ के पास मूर्ति के सामने हाथ जोड़े बैठा था । इतने में दूर से पिताजी की घोड़ी की हिनहिनाहट वाली तेज आवाज़ सुनाई दी। माँ को कई महिनों से पिताजी के आने जाने का कोई समाचार नहीं मिला था, अकस्मात दूर से घोड़ी के हिनहिनाहट की मीठी कानों में पड़ते ही वह एक दम खड़ी हो गई और मेरा बोली - "बेटा ! देखतो, रावली सवारी आ रही है ।
आवाज माँ के हाथ पकड़ कर
मैं दौड़ता हुआ गवाड़ी के दरवाजे के पास पहुंचा, तभी पिताजी दरवाजे के पास पहुंचकर घोड़ी से नीचे उतरे और आँगन में आकर खड़े होकर माता को पुकारा । पिताजी बहुत थके हुए मालूम हुए । माता ने तुरन्त अपने पीहर वाले निजी परिजन को धीरे से कहा - 'जानो तुरन्त उस पलंग को उठा लाओ, यहाँ बिछा दो' ।
हमारा वह दो कमरों वाला कवेलू से ढका हुआ कच्ची मिट्टी का एक छोटा सा घर था । उसके सामने कुछ और चौड़ा अच्छा सा आँगन था । सामने एक और छोटा सा मकान था, जिस पर मेड़ी बनी हुई थी, जिसमें माँ सोया करती थी । चौक में एक छोटा सा नीम का वृक्ष था । जिसके आस पास मिट्टी का बना हुआ एक गोल चबूतरा था, जो चारों ओर से लीपा हुआ था । बहुत करके गर्मी के दिन थे। पिताजी के लिये वह पलंग उसी लीमड़ी के नीचे बिछा दिया गया । जिस पर वे तुरन्त लेट गये । कुछ समय विश्रांति के बाद वे माँ से कहने लगे - "मुझे दो दिन से बहुत दस्तें लग रही हैं। बड़ी मुश्किल से मैं यहाँ तुम्हारे पास पहुँच सका हूँ । शायद मगवान जल्दी ही मुझे अपने पास बुलालें ।”
मैं पास में खड़ा था मेरी तरफ देखकर बोले - "बेटा ! दूर क्यों खड़ा है, मेरे पास आ । मैं अबकी बार बहुत बीमार हो गया हूँ । इसलिये तेरे खाने पीने की कोई अच्छी चीजें नहीं लाया हूँ। रास्ते में एक जगह अच्छे पेमली बेर मिल गये थे, वे जरूर थोड़े से ले आया हूँ ।"
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