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________________ (५) गुरू के सर्व प्रथम दर्शन मेरे जीवन का वह सुप्रभात, जिसमें मेरे जीवन चक्र को गतिमान करने वाले एवम् मेरा हाथ पकड़ कर मुझे जीवन मार्ग में चलना सिखाने वाले गुरू के सर्व प्रथम दर्शन हुए। मेरे पिता श्री वृद्धिसिंह परमार जो सिरोही राज्य में जंगलात विभाग के एक अधिकारी के रूप में सेवा करते थे, वे पिछले कई महिनों से संग्रहणी रोग से पीड़ित रहते थे। मेरी माता जी सिरोही राज्य के एक खानदानी चौहान वंशीय जागीरदार की पुत्री थी। वह कुछ वर्ष पहले रूपाहेली में आकर रह गई थी। उसके साथ पिता का दिया हा एक परिचारक परिवार भी रहता था। पिताजी अक्सर अपनी जंगलात वाले विभाग का काम संभालते हुए समय समय पर रूपाहेली आ जाया करते थे। इस बार वे कुछ अधिक बीमार रहे तो वे कुछ महिनों का अवकाश लेकर रूपाहेली चले आये। उनको घोड़े की सवारी का बहुत शौक था और यों वे बहुत अच्छे शिकारी थे । सिरोही के पूर्व वाले घने जंगल और पहाड़ों से घिरे हुए प्रदेश में उनका अधिक रहना होता था और उन जंगलों में शेर, बघेरा, चीता और जंगली सूअरों का उनको अक्सर सामना करते रहना पड़ता था। इसलिवे वे बहुत अच्छे शिकारी के रूप में उस प्रदेश में मशहूर थे। दो चार दफे सिरोही के तकालीन महाराज के साथ शेर के शिकार में भी बड़ा योग दिया था । उससे महाराव उन पर बहुत प्रसन्न रहते थे। वे जब रूपाहेली आये तब बहुत क्षीण मालूम दिये। सवारी के लिये उनके पास एक बहुत अच्छी जाति की घोड़ी थी, उस पर सवार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001967
Book TitleJinvijay Jivan Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherMahatma Gandhi Smruti Mandir Bhilwada
Publication Year1971
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size11 MB
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