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श्रो चतुरसिंहजी राठौड़ के कुछ पत्र
[१८५
पत्रांक ६
रूपाहेली (मेवाड़)
ता: २०-१-१६४०
संवत् १६६६ मि. पोष सुद १० । परम् पूज्य गुरूदेव श्री जिनविजय जी मुनि
आपकी भेजी हुई 9 पुस्तकों के पहुँचने की रसीद का पत्र ता: 19 जनवरी को पूर्ण किया ही था कि डेढ़ घन्टे बाद आपका दूसरा कृपा पत्र विस्तृत रूप से फिर मिला इसलिये इसका भी उत्तर संक्षिप्त इसी के साथ भेट किया जाता है । सबसे प्रथम निवेदन तो यह की जाती है कि आपके दोनों कृपा पत्रों में मुझ तुच्छ मनुष्य को पितृतुल्य प्रभृति आदर सूचक शब्द लिखना अनुचित है । क्योंकि आप संसार त्यागी महर्षि होने से जगत् पूज्य हैं । इसलिये समस्त भारतवर्ष आपको गुरुवत् मानती है । फिर मैं कौन वस्तु हूँ, वास्तव में सबके पूज्य पिता तो आप हैं।
आपने 15 दिन अहमदाबाद सिद्धपुर आदि की यात्रा से पत्र विलम्ब से लिखा यह कोई बड़ी बात नहीं है । महान् पुरुषों को देशोपकारी कार्यों से अवकाश बहुत ही कम मिलता है। परन्तु हमको तो सबसे अधिक प्रसन्नता इस बात से हुई है कि आपने अपनी जन्मभूमि को पावन करने तथा हम लोगों को दर्शन देकर कृतार्थ करने की स्वकृति लिख कर दे दी है। फाल्गन अथवा --चैत्र मास में जब अवकाश मिले तब ही प्रतिज्ञा पूर्ण की जावे, क्योंकि अब आप वचनबद्ध हैं। आशा है कि हमारी इच्छा पूर्ण होगी।
"अठारणे" के राजपुत्र, ब्राह्मण, वेश्य बालकों को विद्या दान प्रदान किया उसी प्रकार जन्मभूमि रूपाहेली की भी इच्छा प्रकट की। इस पर निवेदन है कि हमारे 10 पौत्र हैं उनमें से 6-7 का तो विवाह भी हो चुका है । तीन पौत्र मेरे पढ़ने योग्य हैं। उनमें से एक या दो आपकी इच्छा होगी तो सेवा में भेज दिया जावेगा । आपका यहाँ पर शुभागमन
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