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जिनविजय जीवन-कथा
बार पाठ पढ़ा और फिर उन साधु महाराज को तीन बार घुटने टेक कर नमस्कार किया । बाजे बजे और आए हुए लोगों ने जयजयकार की ध्वनि की और मेरा दीक्षा-ग्रहण का कार्य सम्पन्न हुआ। आए हुए सब लोगों को जैन समाज की ओर से एक एक नारियल और मुट्ठी भर बतासे बांटे गए। ४ बजे यह उत्सव पूर्ण हुआ और सब लोग अपने अपने स्थान पर चल निकले क्योंकि जैन साधु आचार का नियम है कि नवदीक्षित को उसी दिन अपने धर्म स्थानक में जाकर नहीं रहना चाहिए इसलिए वह रात दीक्षा देने वाले साधुजी के साथ उसी बगीचे में बने हुए एक छप्पर के नीचे बिताई और दूसरे दिन सवेरे आठ बजे अपने धार्मिक स्थानक में दाखिल हुए। - यह जैन दीक्षा मैंने वि. सं. १६५६ के आश्विन मास की शुक्ल त्रयोदशी के दिन ली थी। इस दिन से मेरे जीवन चक्र ने एक और ही प्रकार के मार्ग में भ्रमण करना शुरू किया। मेरे जीवन में इस दिन एक नया मोड़ प्रारम्भ हुआ । बहुत वर्षों बाद भी इसी आश्विन शुक्ल त्रयोदशी के दिन जीवन का एक और नया मोड़ शुरू हुआ, इसलिए यह आश्विन शुक्ल त्रयोदशी की तिथि मेरे जीवन में एक विशिष्ठ स्थान रखती है। वह दूसरा मोड़ कब और कैसे शुरू हुआ इसका वर्णन यथास्थान किया जायगा।
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