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जैन सम्प्रदाय के स्थानक वासी आम्नाय में दीक्षित होना [१६७
के रास्ते गांव से आधा मील दूर एक बगीची के पास पहुंचा। इस बगीची में बहुत से आम के वृक्ष थे उनमें से एक बड़े दरख्त के नीचे लम्बी चौड़ी जाजम बिछा दी गई उसके पास एक लकड़ी का पट्टा रख दिया गया जिस पर साधु महाराज आकर विराजमान हुए मैं हाथी पर सवार था सो बगीची में पहुंचकर नीचे उतरा एक दूसरे बड़े आम के दरख्त के नीचे वैसी ही जाजम बिछाई गई जिस पर बड़ी गद्दी और तकिये आदि रक्खे गए मुझे पहले उस गद्दी पर बिठाया गया और उस प्रसंग पर आने वाले सैकड़ों भाई बहनों ने आ पाकर एक एक रुपया अपने हाथ में लेकर न्योछावर करके वह रुपया मेरे सामने रक्खा इस प्रकार उस वक्त कोई ५००-७०० रु. इकट्ठे हुए जिनको गरीबों में बांटने के लिए मुखिया श्रावक को दे दिए गए। बाद में मुझे जो बहुमूल्य (एक राजकुंवर को शोभित) वैसे कपड़े आदि पहनाए गए थे वे उतारे गए । नाई को बुलाकर सिर्फ दस-बीस चोटी के बाल छोड़कर मेरा मस्तक मुंडवाया गया। फिर स्नान हुआ और बाद में जैन साधु भेष के सब कपड़े मुझे पहनाये गए। यह कपड़े कैसे पहनने चाहिए इसका अभ्यास मुझे पहले ही से करा दिया गया था अतः मैंने स्वयं उन सब कपड़ों को यथा योग्य रीति से पहन ओढ़कर मह पर पट्टी बांध हाथ में लम्बी डंडी वाला रजोहरण लेकर धीरे धीरे उत्साह और आनन्द के साथ चलता हुआ साधु महाराज के सामने जाकर हाथ जोड़कर खड़ा हुआ और वह सूत्र पुकारने लगा जिसमें साधु व्रत दिए जाने का कथन होता है।
साधुजी महाराज ने कुछ पाठ पढ़े और मेरे सिर पर जो चोटी की जगह दस-बीस बाल थे उनको अपने हाथों से उखाड़ कर पास में खड़े हुए श्रावकों के मुखिया को दे दिए । मैंने सामायिक-सूत्र का तीन बार *इस समय मेरे पास हाथी के हौदे पर तांबे के पैसों की दो बड़ी-बड़ी थैलियां रक्खी गई थीं जिनमें से मुट्ठी भर-भर कर मैं रास्ते में दोनों तरफ पैसे उछालता जाता था। ठीक तो याद नहीं परन्तु एक एक थैली पक्के मन वजन के पैसों से भरी हुई होगी।
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