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जैन सम्प्रदाय के स्थानक वासी आम्नाय में दीक्षित होना [१५६
रही उनकी यह जिज्ञासा बढ़ रही थी कि मैं कौन हूँ-कहां का हूँ-और कहाँ रहता हूँ इत्यादि-पर मेरी तरफ से उनको कोई स्पष्ट जवाब नहीं मिलता था अतः उनके दिल में कई प्रकार की शंकाएं भी शायद उठती रहती थी मेरा स्वभाव यूं साधारणतया मिलनसार है, मैं कहीं भी किसी के साथ ठीक ठीक मिलकर रहने का आदि हो गया था और बोलचाल में भी मेरा व्यवहार लोगों को अच्छा लगता था शरीर से भी मैं ठीक ही था । किसी प्रकार की चंचलता या अविवेक का उपयोग मैं नहीं करना चाहता था। हाँ, तो मैं उस दिन उन दो बहिनों के साथ साधु महाराज के स्थानक में गया तो सबसे पहिले तो उन्होंने उस बदनावर वाली बहिन के आगे-पीछे के समाचार पूछे क्योंकि वे साधु महाराज उस बहिन के परिवार से परिचित थे। बाद में उन्होंने मेरे विषय में पूछा कि यह भाई कौन है ? शायद उन्होंने सोचा होगा कि मैं भी कोई उस बहिन का रिश्तेदार होऊँगा तब उस बहिन ने मेरे बदनावर आने संबंधी और यतिजी आदि के बारे में बात कही । यह सुनकर साधु महाराज के मन में कोई और ही प्रकार का भाव जागृत हुआ जिसकी कल्पना मुझे उनके चेहरे आदि से भास होने लगी। बाई ने मेरे विषय में कहा कि यह लड़का बहुत सुशील और समझदार है यद्यपि यह अपनी सही-सही बात हमको नहीं बताता है परन्तु हमको कोई विशेष परिस्थिति में कहीं से किसी बड़े ठिकाने से चला आया मालूम देता है इत्यादि प्रकार की कई बातें उस बहिन ने अपनी ओर ले बढ़ा-चढ़ाकर कहीं और वह बारम्बार मेरे मुख के सामने देखती जाती और पूछती जाती कि क्यों भाई मैं ठीक कह रही हूँ न ? जिसका कोई जवाब मेरे पास सिवाय मौन रहने के नहीं था। फिर साधु महाराज ने मुझसे पूछा कि क्या भाई तुम कुछ पढ़े हो यतिजी के साथ रहने से कुछ धर्म का कोई ज्ञान तो जरूर प्राप्त किया होगा इत्यादि । मैंने कहा महाराज कुछ पढ़ा तो नहीं हूं मेरे एक परम गुरु के समान और मेरे कुटुम्ब के पास हितैषी वृद्ध यतिजी महाराज से अक्षर बोध जरूर प्राप्त किया और जैन धर्म के कुछ स्तुति-स्तोत्र
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