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________________ १४६] जिन विजय जीवन-कथा सकूंगा । सुनकर ज्ञानचन्द जी तो कहने लगे कि नहीं २ हमको ऐसा कुछ नहीं करना है । हमें क्या वैसी आवश्यकता पड़ी है, परन्तु उनके पिता का जो बहुत ही बनिया बुद्धि की वृत्ति रखने वाले थे बोले यदि किसनलाल की हिम्मत हो तो इसको वैसा करने देने में क्या हरकत है। पांच पचास रुपये सहज में मिल जायेंगे और पके ग्राम भी खूब खाने का लाभ होगा । मैं उनकी बातें सुनकर कुछ उत्साहित हुआ और ज्ञानचंद जी, जिनको मैं दादा भाई के नाम से पुकारा करता था से कहा कि मुझे वह जगह देख लेने दो जहां पर वे आम के पेड़ खड़े हैं । दूसरे दिन सवेरे ज्ञानचन्द जी के पिता मुझे वहां ले गये, मैंने देखा कि वहां पर एक अच्छा सा तालाब बना हुआ है जिसमें थोड़ा बहुत पानी भी भरा हुआ है । उसकी पाल से थोड़ी ही दूरी पर वे पांच सात पेड़ खड़े थे । उन पर काफी केरियां लगी हुई थी और अच्छी बड़ी किस्म की केरियां थी। वहां पर नजदीक में किसी का खेत या कुवा नहीं था । परन्तु एक आध फल्लांग की दूरी पर दो चार खेत थे । उनके पास ही तीन चार भीलों की झोंपड़ियां थी । मैंने उन यति जी से कहा कि यदि इन झोंपड़ियों वालों में से किसी को कुछ हिस्सा दे देने का तय कर लिया जाय तो उसको साथ में रखकर रखवाली का काम मैं कर लूंगा । यति जी ने फिर उन झोंपड़ियों में से किसी एक वृद्ध आदमी को बुलाया और कहा कि 'बासा' इन आमों के पेड़ों का हमने ठेका लिया है । और इनकी रखवाली हमारे ये भाई साहब वगैरह करेंगे । तुम अगर इनके साथ यहां रहोगे तो रोज के दो आने तुमको दिये जायेंगे और दो चार टोपलियां केरी भी मिल जायगी । सुनकर वह वृद्ध भी खूब राजी हो गया और बोला कि गुरांसा मैं इनकी चाकरी में पूरा हाजर रहूँगा और किसी को यहां दुकने नहीं दूंगा । आदि बातें उससे तय करके उन यति जी ने आम के मालिक जागीरदार को जो देना कहा था उसे देकर उसकी लिखा पढ़ी कर ली । और ज्ञानचन्द जी को वह सब काम संभला गये । मैं दूसरे ही दिन सवेरे रोटी खाकर वहां जाने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001967
Book TitleJinvijay Jivan Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherMahatma Gandhi Smruti Mandir Bhilwada
Publication Year1971
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size11 MB
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