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मंडप्या निवास जैन यतिवेश धारण [१४५ वाले चोमासे में कहीं जाकर जैन लोगों को उसे सुना सकू। कुछ ही दिनों में मैंने उसे ठीक पढ़ लिया मैं गंगापुर से वापस मण्डप्या में आया तब मेरा वह पुराना भेष बदल गया था। ज्ञानचन्द जी की तरह ही मैं भी नंगा सिर रखता था और घर से बाहर निकलने पर बदन पर चद्दर डाल लेता था । टोपी और कुर्ते की अपेक्षा वह भेष मुझे अच्छा लगने लगा। पर उस भेष से लोग मुझे यति जी महाराज के चेले के रूप में पहचाना करते थे। यद्यपि मैं विधीवत् किसी यति का चेला नहीं बना था । मण्डप्या में रहते हुए मेरे पास खास कोई काम नहीं था। ज्ञानचन्द जी की खेती एक फसली ही होती थी। अत: गर्मियों के दिनों में कोई काम नहीं रहता था। उन्हीं दिनों रतलाम से ज्ञानचंदजी के गुरू मण्डप्या में आये।
वे किसानों वगैरह को कुछ रुपया पैसे के लेन-देन का काम किया करते थे । बदले में किसानों से गल्ला वसूल कर बनियों को बेच देते थे । एक दिन पाकर उन्होंने ज्ञानचन्दजी से कहा कि अमुक जगह पांच सात आम के वृक्ष हैं। उन पर अच्छी केरियां लगी हुई हैं, किसी जागीरदार के वे पेड़ हैं । उसने उनको ठेकेपर दे देने को मुझसे कहा है और पचास, पच्चतर रुपये मांग रहा है। यदि उनको ठेके पर ले लिया जाय और अच्छी रखवाली की जाय तो उससे सो, सवासौ रुपये मिल सकते हैं। उन्होंने कहा तुम इसका प्रबन्ध कर सको तो मैं रुपया दे जाऊँ ज्ञानचन्द जी ने कहा कि उन आमों की रखवाली कौन करे और उन केरियों को बेच बाच कर रुपया कौन वसूल करे । चूकि यह जगह यहां से डेढ़ दो कोस दूर है और वहां केवल जंगल है, आसपास में वैसे कोई बस्ती भी नहीं है इसलिए वहाँ रखवाली करने को रहे भी कोन आदि ज्ञानचन्द जी के पिता ने मेरे सामने देखकर कहा कि वह किसनलाल रखवाली का काम सम्भाल ले तो यह सौदा बैठ सकता है। मैंने यू ही उत्साह में आकर कहा कि गुराँसा इन गर्मियों के दिनों में यहां और कोई काम नहीं है इसलिए मैं उस रखवाली का काम कर
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