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श्री सुखानन्द जी का प्रवास और भैरवी-दीक्षा [१०१ लक्षण वगैरह देखकर इनका मन तुम पर बहुत प्रसन्न हुआ है । तुम किसी प्रकार की चिन्ता मन में न करना और अभी अपनी मां को भी कुछ बात न कहलाना । मैंने इनसे कहा है कि तुम किसी ब्राह्मण के लड़के हो तुम्हारे पिता आदि कोई नहीं हैं। सो इस बात को ध्यान में रखना और किसी से और कोई बात न कहना। कल यहाँ से खाखी महाराज का डेरा उठेगा और जावद, नीमच आदि गांवों में होते हुए ये आषाढ़ी पूनम के आसपास उज्जैन जाना चाहते हैं । वहाँ पर चौमासे के चार महीने रहेंगे । इत्यादि ।
ऐसी बातें करते हुए वे सेवक जी भी उसी पेड़ के पास एक दूसरा अच्छा सा पेड़ था उसके नीचे जाकर सो गये । मैं अपने लिये बिछाये गये उस कम्बल पर लेट गया । कम्बल के पास ही मैंने अपना चीमटा, त्रिशूल और कमंडल रख लिया। रात को पहनने के लिए भगवे रंग में रंगी हुई एक कफ़नी भी चेला जी ने मुझे लाकर दे दी और कहा कि इसे पहनकर सो जाना। क्योंकि मेरे शरीर पर वह भभूति लगी हुई थी जिससे मुझे अटपटा सा लग रहा था अतः उस कफनी के पहनने से मुझे कुछ आराम सा लगा। __यद्यपि काफ़ी थकान के कारण मैं उस कम्बल पर कफनी पहनकर लेट गया परन्तु मुझे नींद नहीं आई। रात्री के उस शांत वातावरण में चन्द्रमा की ओर टकटकी लगाये मैं पड़ा रहा और मेरे मन में आज के दिन की सारी घटना के विषय में अनेक प्रकार के विचार उथल-पुथल मचाने लगे। जिस दिन से रूपाहेली छोड़कर और अपनी मां से अलग होकर उन स्वर्गवासी यतिवर श्री देवीहंस जी महाराज के साथ बानेण आया तब से लेकर आज के दिन तक की जीवन में घटने वाली विचित्र घटनाओं के सिंहावलोकन से मेरे मन में न जाने कैसे २ विचार आये। दो दिन पहले मैं बानेण से किस हेतु सुखानन्द जी की यात्रा करने आया था और किस प्रकार खाखी महाराज से मिलना हुप्रा और किस तरह अचानक ही एक रात में खाखी बाबा के चेला बन जाने का मन ने तय
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