________________
श्री सुखानन्दजी का प्रवास और भैरवी-दीक्षा [६६ यथायोग्य किसी को चबन्नी किसी को अठन्नी और किसी को रुपया बक्षीश दिया।
मैं भोजन कर लेने के बाद उस छोलदारी में चला गया और वहां पर मृग छाला बिछाकर उस पर पद्मासन लगाकर जा बैठा था। पास में वह चीमटा, त्रिशूल और कमंडल रख लिया था। खाखी महाराज ने कहा कि यहां बैठे-बैठे "ओम् नमः शिवायः" इसका मन में जाप करते रहना और जो कोई तेरे पास आवे और नमस्कार करे तो उसके सामने भी इसी मंत्र का उच्चारण करते रहना और किसी प्रकार की कोई बातचीत मत करना।
खाखी महाराज के दर्शन करने के पश्चात् कई साधु संत मुझे देखने आये और कुछ बोलने भी लगे परन्तु मैं खाखी महाराज की आज्ञानुसार उक्त मंत्रोच्चार के सिवाय और कुछ नहीं बोलता था, मन में जरूर हंसता रहता था परन्तु ऊपर से गम्भीर भाव रखता हुआ शान्त होकर बैठा रहा।
इतने में संध्या हो गई । और खाखी महाराज के डेरे के सम्मुख आरती और भजन कीर्तन की तैयारी हुई। उस भारती में अनेक लोग शामिल होने आये। आगन्तुक वे सभी अन्य साधु, सन्यासी, बाबा, वैरागी भी उपस्थित हुए । आरती की पूजा-विधि सम्पन्न होने पर कुछ भजन मंडलियां वहां बैठी और कोई तीन चार घंटे तक भजन, गान आदि चलते रहे। खाखी महाराज उसी तरह अपने तम्बू के आगे चौकी लगाकर उस पर निश्चल आसन से बैठे रहे । वैसाखी पूर्णिमा की वह मधुर रात थी, आकाश में चन्द्रमा का शीतल प्रकाश फैला हुआ था । सुखानन्द जी के आस-पास छोटी-छोटी पहाड़ियां चन्द्रमा के निर्मल प्रकाश में बहुत सुन्दर दिखाई दे रही थी। खाखी महाराज की आज्ञा से मेरे बैठने के लिए उस तम्बू के निकट ही एक बड़ा आम का वृक्ष था उसकी गहरी छाया में पत्थर का छोटा-सा चबूतरा बना हुआ था, उस
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org