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श्री सुखानन्द जी का-प्रवास और भैरवी-दीक्षा [७ समय वह सिंहासन तम्बू के बाहर रख दिया जाता था और उसकी बड़े ठाठ से प्रारती उतारी जाती थी। उस समय खाखी बाबा के साथ वाले सब परिजन तथा प्रागंतुक यात्री सम्मिलित होकर भजन कीर्तन आदि किया करते थे। शिवलिंग की यह आरती पूजा आदि कोई रात्रि के दो तीन घंटे चलती रहती थी और खाखी बाबा उस सिंहासन के पास ही एक चौकी पर पद्मासन लगा कर बैठे रहते थे। वे प्रायः लोगों से कुछ विशेष बातचीत नहीं किया करते थे।
उनके लबाजमें की सारी व्यवस्था उनका जो मुख्य कामदार था वह किया करता था । भोजन के लिये दोपहर के बारह बजे बाद तैयारी होती थी। जो तीन चार बजे तक चलती थी। भोजन में प्रायः सदा मालपुआ अथवा चूरमाबाटी का व्यवहार होता था।
कुल मिलाकर उनके साथ पच्चीसेक मनुष्यों का काफिला था। जिनमें सात आठ छोटी बड़ी उम्र के उनके शिष्य थे जो खाखी बाबा के समान ही बदन पर भभूत लगाये रहते थे और कोपीन पहने रहते थे । कुछ का सिर बिल्कुल मुड़ा हुआ था और कुछ के सिर पर छोटे बड़े तरह तरह के बाल थे । सभी के कानों में स्फटिक के कुन्डल थे। कुछ के गले में रुद्राक्ष की माला भी पड़ी हुई थी। इन खाखी शिष्यों को पढ़ाने के लिये दो तीन ब्राह्मण पंडित भी साथ में थे, जो यथा समय उनको व्याकरण काव्य आदि पढ़ाया करते थे।
जिन सेवक जी के साथ मैं सुखानन्द जी गया था वे सेवक जी भी उन खाखी बाबा से परिचित थे । अतः वे मुझे भी खाखी बाबा के दर्शन कराने के लिये ले गये । सेवक जी ऐसे समय वहाँ गये जबकि अन्य लोगों की कोई भीड़ नहीं थी । सेवक जी ने खाखी बाबा को नमस्कार किया और उनके सामने भेंट स्वरूप एक रुपया रखा । बाद में खाखी बाबा ने उनको कुछ प्रसाद दिया। उनकी तरह मैंने भी हाथ जोड़ कर खाखी बाबा को नमस्कार किया, पर मेरे पास भेंट चढ़ाने हेतु रुपया पैसा कुछ भी नहीं था । इसलिये मैं कुछ दूर खड़ा रहा और उनकी तरफ टकटकी लगा कर देखने लगा।
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