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जिनविजय जीवन-कथा
माँ को बहुत दुख हो रहा है। वह दिन रात तुम्हारे लिये रो रही है । इसलिये तुम मेरे साथ रूपाहेली चलो ।'
मुझे अपने छोटे भाई बादल की मृत्यु के समाचार सुनकर बहुत दुख हुआ । अपनी माता की विव्हलता और असहायता की कल्पना ने मुझे विक्षिप्त सा बना दिया । मेरी समझ में नहीं आता था कि मुझे क्या करना चाहिये । मेरे मन में आया कि मैं रूपाहेली जाकर क्या करूंगा । वहाँ पर मेरी माता के सिवाय कोई खास स्वजन हैं नहीं, जिनकी सहायता से मैं विद्या आदि पढ़ सकूं । माता के पास कोई ऐसा धन संचय नहीं था जिससे वह मेरी पढ़ाई आदि का कुछ इन्तजाम कर सके । उसके निर्वाह के लिये भी उसके पास क्या साधन था, इसका भी .. मुझे कोई ठीक ज्ञान नहीं था। हाँ, इतना मुझे ज्ञान था कि उसके पहनने के लिये सोने चाँदी के कुछ अच्छे गहने थे, जिनको बेच बेच कर वह अपना निर्वाह किया करती थी और मेरा भी पालन करती रहती थी। शायद सोचती होगी कि ५, ७ वर्ष में मेरा बेटा होशियार हो जायगा और कहीं अच्छी राजकीय नौकरी मिल जायगी और मेरा उजड़ा हुआ घर आबाद हो जायगा । इसका कुछ आभास मेरे मन पर भी जमा हुआ था, और मुझे भी ऐसी किसी सुशुप्त कल्पना के चित्र को भविष्य में देखने की अव्यक्त इच्छा उत्पन्न होती रहती थी ।
ऐसी स्थिति में मेरा मन उस समय रूपाहेली जाने को तैयार नहीं हुआ और मैंने सोचा कि मैं कहीं जाकर कुछ विद्या पढू और कुछ होशियार होकर माँ के पास जाऊँ । इसलिये मैंने उस रूपाहेली वाले महाजन के साथ जाने से इनकार कर दिया । उस महाजन ने रूपाहेली जाकर मेरी माँ को क्या कहा और उसे सुनकर उसके मन में कैसे आघात प्रत्याघात हुए होंगे, इसकी मुझे कोई कल्पना नहीं हुई । न ही उसके बाद उसकी तरफ से कोई समाचार मुझे अपने जीवन में मिले और न ही मेरे कोई समाचार उसके जीवन में उसे कभी मिले। उसके बाद कोई एक डेढ़ महिना बीतने पर सियाले ( शीतकाल ) के दिनों में
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