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________________ गुरु महाराज के स्वर्गवास के बाद [८१ सामने आई तो धनचन्द ने कहा--- "मेरे पास कोई पैसा नहीं है ?" तब उन सेवकजी ने अपने ही पास से कुछ खर्च करके मुझे उदयपुर ले जाने का प्रबन्ध किया। बानेण से चल कर हम लोग कपासन के स्टेशन पर आये और वहां से गाड़ी में बैठ कर उदयपुर गये । उदयपुर में उन सेवकजी के कोई जान पहचान वाले सज्जन के घर पर हम ठहरे, कोई तीन चार दिन तक उदयपुर रहे और विजयादशमी पर निकलने वाली सवारी आदि का उत्सव देखा । जीवन में पहली ही दफा मैंने बड़ा शहर और बाजार आदि देखे तथा दशहरे का उत्सव भी अच्छी तरह देखा इसलिये मेरे मन पर उसका बहुत प्रभाव पड़ा और मन में यह संकल्प जागत हआ कि ऐसे बड़े शहर देखने चाहिये और कहीं अच्छी संगति और अच्छे स्थान में रह कर विद्या पढ़नी चाहिये । वे सेवकजी भी मुझे इसी प्रकार की बातें कहा करते थे और मेरी जिज्ञासा को उत्साहित किया करते थे। उदयपुर में उन सेवक जी के साथ मैंने एक दो यतिजी के स्थान भी देखे तथा एक महन्त जी का स्थान भी देखा । महन्त जी के स्थान में कुछ विद्यार्थी थे, जो किसी ब्राह्मण के पास कुछ पढ़ा करते थे। उन विद्यार्थियों के खाने पीने आदि का सब प्रबन्ध महन्त जी किया करते थे। उन सेवक जी ने मुझसे कहा कि ऐसे किसी महन्त आदि के पास रहने से विद्या पढ़ने का मौका मिल सकता है।' सेवक जी की कही हुई वह बात मेरे मन में अव्यक्त रूप से परन्तु दृढ़ भाव के साथ जम गई थी । उदयपुर से वापिस बानेण आना हुआ और यहाँ पर मैं उसी प्रकार खेत वगैरह का काम संभालने लगा। मेरा चित्त अब किसी और दिशा में घूमने लगा। दीवाली के दिन नजदीक आ रहे थे तब रूपाहेली से वह महाजन फिर मुझे लेने के लिये आ गया और इस बार उसने यह दुखद समाचार सुनाये कि 'तुम्हारा छोटा भाई बादल बीमारी के कारण गुजर गया है और इससे तुम्हारी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001967
Book TitleJinvijay Jivan Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherMahatma Gandhi Smruti Mandir Bhilwada
Publication Year1971
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size11 MB
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