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नृपति का उदाहरण उपस्थित किया है। पूर्व सम्पादक साक्षर श्री जिनविजयजी लिखते है-'हमारा अनुमान है कि यह वत्सराज (जिसका प्राकृतनाम वच्छराज है) प्रतिहारवंशीय सम्राट् था, जो पहले राजस्थान प्रदेश का एक सामान्य सा प्रतिहार ठाकुर था और पीछे से अपनी प्रभुशक्ति के प्रभाव से सारे उत्तरापथ का बड़ा सम्राट् बना । राजस्थान के कुछ वृद्ध चारणों के मुख से सुना है कि वत्सराज पडिहार सिरोही जिला के अन्तर्गत अजारी नामक स्थान में जो प्राचीन त्रिपुरा भारती का पीठ था उसका अनन्य उपासक था और वहाँ पर उसने त्रिपुरादेवी की विशिष्ट आराधना-उपासना की थी । और उसके कारण वह पीछे से एक बड़ा सम्राट् बन सका था । चारण लोग प्रायः शक्ति के उपासक होते है । उनका यह भी कथन था कि लघु-पण्डित स्वयं चारण जाति का कवि था और वह उक्त त्रिपुरा पीठ का मुख्य अधिष्ठाता था । इस किंवदन्ती में कितना तथ्यांश है इसका कोई अन्य प्रमाण ज्ञात नहीं है ।'
(पद्य-१३) इस पद्य में भी देवी का माहात्म्य व्यक्त हुआ है।
. (पद्य-१४) चारों वर्ण के साधक भगवती की स्वयोग्य द्रव्य से पूजा करके अपनी मनोकामना पूर्ण कर सकते है । देवी की पूजाविधि का वर्णन इस पद्य में है।
(पद्य-१५) त्रिपुरादेवी परा शक्तिरूपा है । जगत का सर्जन-नियमनसंहरण त्रिपुरा देवी के वश में है। देवी का स्वरूप और महिमा सामान्य बुद्धि से परे है । देवी की महिमा का अनुभव योगिजन को होता है ।
(पद्य-१६) विश्वकी हरेक वस्तु का नियमन सत्त्व-रजस्-तमस्, उत्पत्ति-स्थिति-लय, राग-द्वेष-मोह इत्यादि त्रिक-त्रिक रूपेण होता है । त्रिकरूपेण नियमित हरेक वस्तु श्रीत्रिपुरा देवी में अन्तर्हित होती है । - (पद्य-१७) भगवती के सात स्वरूप है । देवी के स्वरूप का ध्यान करने से भक्तो को प्रत्यक्ष प्रभाव का अनुभव होता है । लक्ष्मी :- राजकुल में प्रवेश होता है (राज्य द्वारी आपत्ति से मुक्ति) होती
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