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उत्तर में नागसेन ने कहा कि पुद्गल शील में प्रतिष्ठित होकर किसी भी आकाश प्रदेश में रहते हुए निर्वाण का साक्षात्कार कर सकता है।
(५) जीवन्मुक्ति-विदेह मुक्ति - आत्मा से मोह दूर हो जाए और वह वीतराग बन जाए तब शरीर तत्काल अलग हो जाता है अथवा नहीं, इस प्रश्न के उत्तर के फलस्वरूप मुक्ति की कल्पना दो प्रकार से की गईजीवन्मुक्ति और विदेह मुक्ति । राग द्वेष का अभाव हो जाने पर भी जब तक आयु कर्म का विपाक-फल पूर्ण न हुआ हो तब तक जीव शरीर में रहता है अथवा उसके साथ शरीर संबद्ध रहता है। किंतु संसार या पुनर्जन्म के कारणभूत अविद्या और राग द्वेष के नष्ट हो जाने पर आत्मा में नए शरीर को ग्रहण करने की शक्ति नहीं रहती। अतः ऐसी आत्मा का प्राणधारणरूप जीवन जारी रहने पर भी वह मोह, राग, द्वेष से मुक्त होने के कारण 'जीवन्मुक्त' कहलाती है। जब उसका शरीर भी पृथक् हो जाता है तब उसे 'विदेह मुक्त' अथवा केवल 'मुक्त' कहते हैं।
विद्वानों की मान्यता है कि उपनिषदों में जीवन्मुक्ति के उपरांत क्रममुक्ति का सिद्धांत भी प्रतिपादित किया गया है। इस बात का दृष्टान्त कठोपनिषद् से दिया जाता है। उसमें लिखा है कि उत्तरोत्तर उन्नतलोक में आत्मप्रत्यक्ष क्रमशः विशद और विशदतर होता जाता है। इस से ज्ञात होता है कि इस उपनिषद् में क्रममुक्ति का उल्लेख है-अर्थात् आत्मसाक्षात्कार क्रमिक
मिलिन्द प्रश्न ४.८.९२-९४. २ कठ २. ३. ५;
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