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________________ ( ५४ ) उसे कर्ता कहते हैं और उसी आत्मा में बाद में सुखादि के संवेदन का समवाय होता है, अतः उसे भोक्ता कहते हैं । (३) बौद्ध मत अनात्मवादी - आशाश्वतात्मवादी बौद्ध भी पुद्गल को कर्ता और भोक्ता मानते हैं। उनके मत में नाम रूप का समुदाय पुद्गल या जीव है । एक नाम रूप से दूसरा नाम रूप उत्पन्न होता है । जिस नाम-रूप ने कर्म किया, वह तो नष्ट हो जाता है, किंतु उससे दूसरे नाम रूप की उत्पत्ति होती है और वह पूर्वोक्त कर्म का भोक्ता होता है। इस प्रकार संतति की अपेक्षा से पुद्गल में कर्तृत्व और भोक्तृत्व पाए जाते हैं । काश्यप ने संयुत्त निकाय में भगवान् बुद्ध से इस विषय में चर्चा की है। उसने भगवान् से पूछा, 'दुःख स्वकृत है ? परकृत है ? स्वपरकृत है ? या अस्वपरकृत है ?' इन सब प्रश्नों का उत्तर भगवान् ने नकारात्मक दिया । तब काश्यप ने भगवान् से प्रार्थना की कि वे इसका स्पष्टीकरण करें । भगवान् ने उत्तर देते हुए कहा कि दुःख स्वकृत है, इस कथन का अर्थ यह होगा कि जिसने किया, वही उसे भोगेगा। किंतु इससे आत्मा को शाश्वत मानना पड़ेगा । यदि दुःख को स्वकृत न मानकर परकृत माना जाएअर्थाद कर्म का कर्त्ता कोई और है तथा भोक्ता अन्य है यह कहा जाए तो इससे आत्मा का उच्छेद मानना पड़ेगा । किंतु तथागत के लिए शाश्वतवाद और उच्छेदवाद दोनों ही अनिष्ट हैं । उसे प्रतीत्यसमुत्पादवाद मान्य है- अर्थात् पूर्व कालीन नाम-रूप था अतः उत्तर कालीन नाम रूप की उत्पत्ति हुई । दूसरा पहले से उत्पन्न हुआ है अतः पहले द्वारा किए गए कर्म को भोगता है । " संयुक्त निकाय १२, १७ १२.२४; विसुद्धिमग्ग १७.१६८ - १७४. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001965
Book TitleAtmamimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherJain Sanskruti Sanshodhan Mandal Banaras
Publication Year1953
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Epistemology, & Religion
File Size8 MB
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