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________________ ( ४७ ) होता है और उसी के कारण अन्यत्र नवीन पुद्गल उत्पन्न होता है । इसी को पुद्गल की गति कहते हैं । उपनिषदों में भी कचित् मृत्यु के समय जीव की गति अथवा गमन का वर्णन आता है। इससे ज्ञात होता है कि जीव की गति की मान्यता प्राचीन काल से चली आ रही है । ' जीव की नित्यता- अनित्यता (१) जैन और मीमांसक उपनिषत् के 'विज्ञानघन' इत्यादि वाक्य की व्याख्या (विशेषा० गा० १५६३-६ ) और बौद्ध समस्त 'क्षणिक विज्ञान' का निराकरण ( विशेषा० गा० १६३१ ) करते हुए तथा अन्यत्र ( विशेषा० गा० १८४३, १६६१ ) आत्मा को नित्यानित्य कहा गया है। चैतन्य द्रव्य की अपेक्षा से आत्मा नित्य है अर्थात् आत्मा कभी भी अनात्मा से उत्पन्न नहीं होती ओर नहीं आत्मा किसी भी अवस्था में अनात्मा बनती है । इस दृष्टि से उसे नित्य कहते हैं । परन्तु आत्मा में ज्ञान-विज्ञान की पर्याय अथवा अवस्थाएँ परिवर्तित होती रहती हैं, अतः वह अनित्य भी है । यह स्पष्टीकरण जैन दृष्टि के अनुसार है और मीमांसक कुमारिल को भी यह दृष्टि मान्य है । (२) सांख्य का कूटस्थवाद इस विषय में दार्शनिकों की परंपराओं पर कुछ विचार करना आवश्यक है । सांख्य-योग आत्मा को कूटस्थ नित्य मानते हैंअर्थात् उसमें किसी भी प्रकार का परिणाम या विकार इष्ट नहीं । संसार और मोक्ष भी आत्मा के नहीं प्रत्युत प्रकृति के माने गए हैं । १ छान्दोग्य ८.६.५. २ तत्त्वसं ० का ० २२३ – ७, श्लोकबा० आत्मवाद २३ -३० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001965
Book TitleAtmamimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherJain Sanskruti Sanshodhan Mandal Banaras
Publication Year1953
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Epistemology, & Religion
File Size8 MB
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