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को व्यापक माना है । इस विषय में शंकराचार्य को छोड़ कर बाकी के रामानुज आदि ब्रह्मसूत्र के भाष्यकार अपवाद हैं। उन्होंने ब्रह्मात्मा को व्यापक तथा जीवात्मा को अशुपरिमाण माना है । चार्वाक ने चैतन्य को देहपरिमाण माना और बौद्धों ने भी पुद्गलको देहपरिमाण स्वीकार किया ऐसी कल्पना की जा सकती है। जैनों ने तो आत्मा को देहपरिमाण स्वीकार किया है।
आत्मा को देहपरिमाण मानने की मान्यता उपनिषदों में भी उपलब्ध होती है। कौषीतकी उपनिषद् में कहा है कि जैसे तलवार अपनी म्यान में और अग्नि अपने कुंड में व्याप्त है, उसी तरह आत्मा शरीर में नख से लेकर शिखा तक व्याप्त है।' तैत्तिरीय उपनिषद् में अन्नमय-प्राणमय, मनोमय-विज्ञानमय, आनन्दमय इन सब आत्माओं को शरीरप्रमाण बताया गया है। उपनिषदों में इस बात का भी प्रमाण है कि आत्मा को शरीर से भी सूक्ष्म परिमाण मानने वाले ऋषि विद्यमान थे। बृहदारण्यक में लिखा है कि आत्मा चावल या जौ के दाने के परिमाण की है। कुछ लोगों के मतानुसार वह अंगुष्ठ परिमाण है ४ और कुछ की मान्यता के अनुसार वह विलस्त परिमाण है। मैत्री उपनिषद् (६.३८) में तो उसे अणु से भी अणु माना गया है। बाद में जब आत्मा को अवर्ण्य माना गया, तब ऋषियों ने उसे अणु से भी अणु और महान् से भी महान् मान कर सन्तोष किया।६
१ कौषीतकी ४.२० . तैत्तिरीय १.२ 3 बृहदा० ५.६.१ ४ कठ २.२.१२ ५ छान्दोग्य ५.१८.१ ६ कठ १.२.२०; छांदो० ३.१४.३; श्वेता० ३.२०
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