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________________ जीव भी ब्रह्म में था, ब्रह्म से ही वह प्रकट होता है तथा प्रलय के समय ब्रह्म में ही लीन हो जाता है। ईश्वर की इच्छा से जीव और प्रकृति में संबंध स्थापित होता है और जगत् की उत्पत्ति होती है। (७) चैतन्य का अचिंत्य भेदाभेदवाद श्री चैतन्य के मत में श्री कृष्ण ही परम ब्रह्म है। उसकी अनन्त शक्तियों में जीव शक्ति भी सम्मिलित है और उस शक्ति से अनेक जीवों का आविर्भाव होता है। ये जीव अणुपरिमाण हैं, ब्रह्म के अंश रूप हैं और ब्रह्म के अधीन हैं। जीव और जगत् परम ब्रह्म से भिन्न हैं अथवा अभिन्न हैं, यह एक अचिन्त्य विषय है। इसीलिए चैतन्य के मत का नाम 'अचिंत्यभेदाभेदवाद' है। भक्त के जीवन का परम ध्येय यह माना गया है कि जीव परम ब्रह्मरूप कृष्ण से भिन्न होने पर भी उसकी भक्ति में तल्लीन हो कर यह मानने लग जाए कि वह अपने स्वरूप को विस्मृत कर कृष्ण स्वरूप हो रहा है।। (८) वल्लभाचार्य का शुद्धाद्वैत मार्ग आचार्य वल्लभ के मतानुसार यद्यपि जगत् ब्रह्म का परिणाम है तथापि ब्रह्म में किसी भी प्रकार का विकार उत्पन्न नहीं होता। स्वयं शुद्ध ब्रह्म ही जगत् रूप में परिणत हुआ है। इससे न तो माया का संबंध है और न अविद्या का, अतः वह शुद्ध कहलाता है और यह शुद्ध ब्रह्म ही कारण तथा कार्य इन दोनों रूपों वाला है। अतः इस वाद को 'शुद्धाद्वैतवाद' कहते हैं। इससे यह भी निष्कर्ष निकलता है कि कारण ब्रह्म के समान कार्य ब्रह्म अर्थात् जगत् भी सत्य है, मिथ्या नहीं। "ब्रह्म से जीव का उद्गम अग्नि से स्फुलिंग की उत्पत्ति के समान है। जीव में ब्रह्म के सत् और चित् ये दो अंश प्रकट होते हैं, आनन्द अंश अप्रगट रहता है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001965
Book TitleAtmamimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherJain Sanskruti Sanshodhan Mandal Banaras
Publication Year1953
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Epistemology, & Religion
File Size8 MB
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