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कोई देव या ब्रह्म इस संसार का कर्त्ता नहीं है --हेतुसमुदाय का आश्रय लेकर शुद्ध धर्मों की ही प्रवृत्ति होती है -विशुद्धिमार्ग १६.२०
भदंत नागसेन ने रथ की उपमा देकर बताया है कि पुद्गल का अस्तित्व केश, दांत आदि शरीर के अवयवों तथा रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार, विज्ञान इन सबकी अपेक्षा से है, किन्तु कोई परमार्थिक तत्त्व नहीं - मिलिन्द् प्रश्न २.४ सू० २९८ ।
स्वयं बुद्धघोष ने भी कहा है:
यथेव चक्खुविणं मनोधातु अनन्तरं । न चेव गतं नापि न निब्बतं अनन्तरं ॥ तथेव परिसंधिवित्तते चित्तसंतति । पुरिमं भिज्जति चित्तं पच्छिमं जायते ततो || जिस प्रकार मनोधातु के पश्चात् चक्षुर्विज्ञान होता है - वह कहीं से आया तो नहीं, फिर भी यह बात नही कि वह उत्पन्न नहीं हुआ; उसी प्रकार जन्मान्तर में चित्त संतति के विषय में समझना चाहिए कि पूर्व चित्त का नाश हुआ है और उससे नये चित्त की उत्पत्ति हुई है - विशुद्धिमार्ग १९.२३ ।
भगवान् बुद्ध ने इस पुद्गल को क्षणिक और नाना- अनेक कहा है । यह चेतन तो है किंतु मात्र चेतन ही है, ऐसी बात नहीं । यह नाम और रूप दोनों का समुदाय रूप है, अर्थात् उसे भौतिक और अभौतिक का मिश्ररूप कहना चाहिए। इस प्रकार बौद्धसंमत पुद्गल उपनिषत् की भांति केवल चेतन अथवा भूतवादियों की मान्यता के समान केवल चेतन नहीं है । इस विषय में भी भगवान बुद्ध का मध्यम मार्ग है - मिलिन्द् प्रश्न २.३३ ; विशुद्धिमार्ग १८.२५ - ३५; संयुत्तनिकाय १.१३५ ।
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