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इस प्रवृत्ति का एक शुभ फल यह हुआ कि विचारकों के मन में वैदिक कर्मकांड के प्रति विरोध की भावना जागरित हो गई। किन्तु आत्म-विद्या का भी अतिरेक हुआ। और अतीन्द्रिय आत्मा के विषय में हरेक व्यक्ति मनमानी कल्पना करने लगा। ऐसी परिस्थिति में औपनिषद-आत्मविद्या के विषय में प्रतिक्रिया का सूत्रपात होना स्वाभाविक था। भगवान् बुद्ध के उपदेशों में हमें वही प्रतिक्रिया दृष्टिगोचर होती है। सभी उपनिषदों का अंतिम निष्कर्ष तो यही है कि विश्व के मूल में मात्र एक ही शाश्वत आत्मा-ब्रह्म तत्त्व है और इसे छोड़ कर अन्य कुछ भी नहीं है। उपनिषत् के ऋषियों ने अंत में यहां तक कह दिया कि अद्वैत तत्त्व के होते हुए भी जो व्यक्ति संसार में भेद की कल्पना करते हैं वे अपने सर्वनाश को निमंत्रण देते हैं। इस प्रकार उस समय आत्मवाद की भीषण बाढ़ आई थी, अतः उस बाढ़ को रोकने के लिए बांध बांधने का काम भगवान बुद्ध ने किया। इस कार्य में उन्हें स्थायी सफलता कितनी मिली, यह एक पृथक् प्रश्न है। हमें केवल यह बताना है कि भगवान बुद्ध ने उस बाढ़ को अनात्मवाद की ओर मोड़ने का भरसक प्रयत्न किया ।
जब हम यह कहते हैं कि भगवान् बुद्ध ने अनात्मवाद का उपदेश दिया, तब उसका अर्थ यह नहीं समझना चाहिए कि उन्होंने आत्मा जैसे पदार्थ का सर्वथा निषेध किया है। उस निषेध का अभिप्राय इतना ही है कि उपनिषदों में जिस प्रकार से शाश्वत अद्वैत आत्मा का प्रतिपादन किया गया है और उसे विश्व का एक मात्र मौलिक तत्त्व माना गया है, भगवान् बुद्ध ने उस का विरोध किया।
'मनसैवानु द्रष्टव्यं नेह नानास्ति किंचन। मृत्योः स मृत्युमाप्नोति य इह नानेव पश्यति । बृहदा० ४. ४. १९; कठो० ४. ११
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