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( १६ ) सारांश यह है कि विज्ञान, प्रज्ञा, प्रज्ञान ये समस्त शब्द एकार्थक माने गए और उसी अर्थ के अनुसार आत्मा को विज्ञानात्मा, प्रज्ञात्मा, प्रज्ञानात्मा स्वीकार किया गया। मनोमय आत्मा सूक्ष्म है, किन्तु मन किसी के मतानुसार भौतिक और किसी के मतानुसार अभौतिक है। किन्तु जब विज्ञान को आत्मा की संज्ञा प्रदान की गई, तब उसके बाद ही इस विचारणा को बल मिला कि आत्मा एक अभौतिक तत्त्व है। आत्मविचारणा के क्षेत्र में विज्ञान, प्रज्ञा अथवा प्रज्ञान को आत्मा कह कर विचारकों ने
आत्मविचार की दिशा में ही परिवर्तन कर दिया। अब उन्हों ने इस मान्यता की ओर अग्रसर होना प्रारंभ किया कि आत्मा मौलिक रूपेण चेतन तत्त्व है। प्रज्ञान की प्रतिष्ठा इतनी अधिक बढ़ी कि आंतरिक और बाह्य सभी पदार्थों को प्रज्ञान का नाम दिया गया।'
अब प्रज्ञा तत्त्व का विश्लेषण अनिवार्य था, अतः उसके विषय में विचार प्रारंभ हुआ। समस्त इन्द्रियों और मन को प्रज्ञा में ही प्रतिष्ठित माना गया। जिस समय मनुष्य सुप्त अथवा मृतावस्था में होता है, उस समय इन्द्रियाँ प्राण रूप प्रज्ञा में अन्तहित हो जाती हैं, अतः किसी भी प्रकार का ज्ञान नहीं हो सकता। जब मनुष्य नींद से जागता है या पुनः जन्म ग्रहण करता है, तब जिस प्रकार चिंगारी में से अग्नि प्रगट होती है उसी प्रकार प्रज्ञा में से इन्द्रियां पुनः बाहर आती हैं और मनुष्य को ज्ञान होने लगता है। इन्द्रियां प्रज्ञा के एक अंश के समान हैं, इसलिए वे प्रज्ञा के बिना अपना काम करने में असमर्थ हैं। अतः इन्द्रियों और
१ ऐतरेय ३.१.२-३ । २ कौषीतकी ३.२ । कौषीतकी ३.५ ४ कौषीतकी ३.७
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