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'अन्योन्तरात्मा मनोमयः' (२.३) वाक्य के आधार पर चार्वाक मन को आत्मा मानते हैं । सांख्यों द्वारा मान्य विकृत के उपासकों में मन को आत्मा मानने वालों का समावेश है। __'मन क्या है' इस विषय में बृहदारण्यक में अनेक दृष्टिकोणों से विचार किया गया है। उसमें बताया गया है कि 'मेरा मन दूसरी ओर था अतः मैं देख नहीं सका' 'मेरा मन दूसरी ओर था अतः मैं सुन नहीं संका'-अर्थात् वस्तुतः देखा जाए तो मनुष्य मनके द्वारा देखता है और उसके द्वारा ही सुनता है। काम, संकल्प, विचिकित्सा (संशय), श्रद्धा, अश्रद्धा, धृति, अधृति, लज्जा, बुद्धि, भय-यह सब मन ही है। इसलिए यदि कोई व्यक्ति किसी मनुष्य की पीठ का स्पर्श करता है, तो वह मनुष्य मन से इस बात का ज्ञान कर लेता है ।२ पुनश्च वहां मन को परम ब्रह्म सम्राट भी कहा गया है। छान्दोग्य में भी उसे ब्रह्म' कहा है।
मन के कारण जो भी विश्व-प्रपंच है, उसका निरूपण तेजोबिन्दु उपनिषद् में किया गया है। उससे भी मन की महिमा का परिचय मिलता है। उसमें बताया गया है कि 'मन ही समस्त जगत् है, मन ही महान् शत्रु है, मन संसार है, मन ही त्रिलोक है, मन ही महान् दुःख है, मन ही काल है, मन ही संकल्प है, मन ही जीव है, मन ही चित्त है, मन ही अहंकार है, मन ही अन्तःकरण है, मन ही पृथ्वी है, मन ही जल है, मन ही अग्नि है, मन ही महान वायु है, मन ही आकाश है, मन ही शब्द है, स्पर्श
१ सांख्यकारिका ४४ २ बृहदारण्यक १. ५. ३. । बृहदारण्यक ४. १. ६ ४ छान्दोग्य ७. ३. १
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