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________________ ( १५ ) मान्यता का प्रश्न ही पैदा नहीं होता । किन्तु जब आत्मा को एक स्थायी तत्त्व के रूप में मान लिया जाए, तब इन सब प्रश्नों पर विचार करने का अवसर स्वयमेव उपस्थित हो जाता है । अतः आत्मवाद के साथ संबद्ध परलोक और कर्मवाद का विचार इसके बाद ही होना आरंभ हुआ । ( ३ ) मनोमय आत्मा विचारकों ने अनुभव किया कि प्राणरूप कही जाने वाली इन्द्रियां भी मनके बिना सार्थक नहीं हैं, मन का संपर्क होने पर ही इन्द्रियां अपने विषयों का ग्रहण कर सकती हैं, अन्यथा नहीं; और फिर विचारणा के विषय में तो इन्द्रियां कुछ भी नहीं कर सकतीं । इन्द्रिय- व्यापार के अभाव में भी विचारणा का क्रम चलता रहता है । सुप्त मनुष्य की इन्द्रियां कुछ व्यापार नहीं करतीं, उस समय मन कहीं का कहीं पहुँच जाता है । अतः संभव है कि उन्होंने इन्द्रियों से आगे बढ़कर मन को आत्मा मानना शुरू कर दिया हो । जिस प्रकार उपनिषत् काल में प्राणमय आत्मा को अन्नमय आत्मा का अन्तरात्मा माना गया, उसी प्रकार मनोमय आत्मा को प्राणमय आत्मा का अन्तरात्मा स्वीकार किया गया। इससे पता चलता है कि विचार - प्रगति के इतिहास में प्राणमय आत्मा के पश्चात् मनोमय आत्मा की कल्पना की गई होगी । ' प्राण और इन्द्रियों की अपेक्षा मन सूक्ष्म है, किन्तु मन भौतिक है या भौतिक, इस विषय में दार्शनिकों का मत एक नहीं । किन्तु यह बात निश्चित है कि प्राचीन काल में मन को अभौतिक भी १ तैत्तिरीय २. ३, २ मन के विषय में दार्शनिक मतभेद का विवरण 'प्रमाण मीमांसा' की टिप्पणी पृ० ४२ पर देखें । Jajn Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001965
Book TitleAtmamimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherJain Sanskruti Sanshodhan Mandal Banaras
Publication Year1953
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Epistemology, & Religion
File Size8 MB
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