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________________ किया है कि वेद-भिन्न अवैदिक विचार धारा का प्रभाव ही इस भेद का कारण है। इस प्रकार की अवैदिक विचार धारा में जैन परंपरा के पूर्वजों की देन कम महत्त्व नहीं रखती। हम इन पूर्वजों को परिव्राजक श्रमण के रूप में जान सकते हैं। (१) देहात्मवाद-भूतात्मवाद आत्म-विचारणा के क्रमिक सोपान का चित्र हमें उपनिषदों में उपलब्ध होता है। उपनिषदों में मुख्यरूपेण इस बात पर विचार किया गया है कि बाह्य विश्व को गौण कर अपने भीतर जिस चैतन्य अर्थात् विज्ञान की स्फूर्ति का अनुभव होता है, वह क्या वस्तु है। अन्य सब जड़ पदार्थों की अपेक्षा अपने समस्त शरीर में ही इस स्फूर्ति का विशेष रूप से अनुभव होता है, अतः यह स्वाभाविक है कि विचारक का मन सर्व प्रथम स्वदेह को ही आत्मा अथवा जीव मानने के लिए आकृष्ट हो। उपनिषद् में इस कथा का उल्लेख है कि असुरों में से वैरोचन और देवों में से इन्द्र आत्म विज्ञान की शिक्षा लेने प्रजापति के पास गए हैं। पानी के पात्र में उन दोनों के प्रतिबिम्ब दिखाकर प्रजापति ने पूछा कि तुम्हें क्या दिखाई देता है ? इसके उत्तर में उन्होंने कहा कि पानी में नख से लेकर शिखा तक हमारा प्रतिबिम्ब दृग्गोचर हो रहा है। प्रजापति ने कहा कि जिसे तुम देख रहे हो, वही आत्मा है। यह सुन कर दोनों चले गए। वैरोचन ने असुरों में इस बात का प्रचार किया कि देह ही आत्मा है। किन्तु इन्द्र का इस बात से समाधान नहीं हुआ। तैत्तिरीय उपनिषद् में भी जहां स्थूल से सूक्ष्म और सूक्ष्मतर आत्म-स्वरूपका क्रमशः वर्णन किया गया है, वहां सबसे पहले १ छान्दोग्य ८.८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001965
Book TitleAtmamimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherJain Sanskruti Sanshodhan Mandal Banaras
Publication Year1953
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Epistemology, & Religion
File Size8 MB
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