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अथवा पांच भूतों के एक विशिष्ट समुदाय-संमिश्रण होने पर आत्मा अर्थात् चैतन्य का प्रादुर्भाव होता है। आत्मा के समान अनादि अनन्त किसी शाश्वत वस्तु का अस्तित्व ही नहीं है, क्योंकि इस भूत समुदाय का नाश होनेपर आत्मा का भी नाश हो जाता है।
इस प्रकार इन दोनों धाराओं के विषय में विचार करने से यह निष्कर्ष निकलता है कि अद्वैतमार्ग में किसी समय अनात्मा की मान्यता मुख्य थी और धीरे धीरे आत्माद्वैत की मान्यता ने दृढ़ता प्राप्त की। दूसरी ओर नानावादियों में भी चार्वाक जैसे दार्शनिक हुए हैं जिनके मत में आत्मसदृश वस्तु का मौलिक तत्त्वों में स्थान नहीं था, जबकि उनके विरोधी जैन, बौद्ध, सांख्य इत्यादि आत्मा एवं अनात्मा दोनों को मौलिक तत्त्वों में स्थान प्रदान करते थे।
आत्मा का स्वरूप-चैतन्य ऋग्वेद के एक ऋषि के उद्गार से प्रतीत होता है कि उसके हृदय में आत्मा के स्वरूप के विषय में जिज्ञासा उत्पन्न हुई। उसकी इस जिज्ञासा में उत्कट वेदना का अनुभव स्पष्ट मालूम होता है। वह ऋषि पुकारकर कहता है, 'यह मैं कौन हूँ अथवा कैसा हूँ' मुझे इसका पता नहीं चलता। अत्मा के संबंध में ही नहीं, प्रत्युत विश्वात्मा के स्वरूप के विषय में भी ऋग्वेद के ऋषि को जिज्ञासा है। विश्व का वह मूल तत्त्व सत् है अथवा असत् है, इन दोनों में से वह उसे किसी भी नाम से कहने के लिए तैयार नहीं। शायद उसे यह प्रतीत हुआ हो कि यह मूल तत्त्व ऐसा नहीं है जिसे वाणी द्वारा व्यक्त किया जा सके। ऋग्वेद (१०.९०)
१ न वा जानामि यदिव इदमस्मि-ऋग्वेद १. १६४. ३७ २ नाऽसदासीत् नो सदासीत् तदानीम् । ऋग्वेद १०. १२९
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