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________________ ( १३० ) वर्णन है। कर्म प्रकृति के पुद्गलों का परिणमन अन्य सजातीय प्रकृति में हो जाना संक्रमण कहलाता है। सामान्यतः उत्तर प्रकृतियों में परस्पर संक्रमण होता है, मूल प्रकृतियों में नहीं। इस नियम के अपवादों का उल्लेख प्रस्तुत ग्रंथ में है। ६. उदय-कर्म का अपना फल प्रदान करना उदय कहलाता है। कुछ कर्म केवल प्रदेशोदययुक्त होते हैं। उदय में आने पर उनके पुद्गलों की निर्जरा हो जाती है। उनका कुछ भी फल नहीं होता। कुछ कर्मों का प्रदेशोदय के साथ २ विपाकोदय भी होता है। वे अपनी प्रकृति के अनुसार फल देकर नष्ट हो जाते हैं। ७. उदीरणा-नियत काल से पहले कर्म का उदय में आना उदीरणा कहलाता है। जिस प्रकार प्रयत्नपूर्वक नियत काल से पहले ही फलों को पकाया जा सकता है, उसी प्रकार नियत काल से पूर्व ही बद्ध कर्मों का भोग किया जा सकता है। सामान्यतः जिस कर्म का उदय जारी हो, उसके सजतीय कर्म की ही उदीरणा संभव है। ८. उपशमन-कर्म की जिस अवस्था में उदय अथवा उदीरणा संभव नहीं परन्तु उनि, अपवर्तन और संक्रमण की संभावना हो, उसे उपशमन कहते हैं। तात्पर्य यह है कि कर्म ढकी हुई अग्नि के समान बना दिया जाए जिससे वह उस अग्नि की तरह फल न दे सके। किन्तु जिस प्रकार अग्नि से आवरण के दूर हो जाने पर वह पुनः प्रज्वलित होने में समर्थ है, उसी प्रकार कर्म की इस अवस्था के समाप्त होने पर वह पुनः उदय में आकर फल देता है। ६ निधत्ति-कर्म की उस अवस्था को निधत्ति कहते हैं जिसमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001965
Book TitleAtmamimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherJain Sanskruti Sanshodhan Mandal Banaras
Publication Year1953
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Epistemology, & Religion
File Size8 MB
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