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पहले दे देता है। पहले के कर्म कैसे भी हों, परन्तु मरण काल के समय के कर्म के आधार पर ही शीघ्र नया जन्म प्राप्त होता है । अभ्यस्त कर्म इन तीनों के अभाव में ही फल दे सकता है, ऐसा नियम है । '
बौद्धों ने पाककाल की दृष्टि से कर्म के जो चार भेद किए हैं, उनकी तुलना योगदर्शन सम्मत वैसे ही कर्मों से की जा सकती है। दृष्टजन्मवेदनीय जिसका विपाक विद्यमान जन्म में मिल जाता है। उपपज्ज - वेदनीय – जिसका फल नवीन जन्म में प्राप्त होता है । जिस कर्म का विपाक न हो, उसे अहो कर्म कहते हैं । जिसका विपाक अनेक भावों में मिले, उसे अपरापर वेदनीय कहते हैं ।
बौद्धों ने पाकस्थान की अपेक्षा से कर्म के ये चार भेद किए - अकुशल का विपाक नरक में, कामावचर कुशल कर्म का विपाक काम सुगति में, रूपावचर कुशल कर्म का विपाक रूपिब्रह्म लोक में, तथा अरूपावचर कुशल कर्म का विपाक रूपलोक में उपलब्ध
होता है ।
कर्म की विविध अवस्थाएँ
यह लिखा जा चुका है कि कर्म का आत्मा से बंध होता है । किंतु बंध होने के बाद कर्म जिस रूप में बद्ध हुआ हो, उसी रूप में फल दे, ऐसा नियम नहीं है, इस विषय में अनेक अपवाद हैं। जैन शास्त्रों में कर्म की बंध आदि दस दशाओं का इस प्रकार वर्णन किया गया है :
१ बंध - आत्मा के साथ कर्म का संबंध होने पर उसके चार
१ अभिधम्मत्थ संग्रह ५. १९; विसुद्धिमग्ग १९.१५
२ विसुद्धिमग्ग १९.१४; अभिधम्मत्थ संग्रह ५. १९ । 3 अभिधम्मत्थ संग्रह ५. १९ ।
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