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हैं। इसका कारण यह है कि बंध तो एक मिध्यात्व का होता है, किंतु जीव अपने अध्यवसाय द्वारा उसके तीन पुंज कर लेता हैअशुद्ध, अर्ध विशुद्ध और शुद्ध । उन्हें क्रम से मिध्यात्व, मिश्र और सम्यक्त्व कहते हैं । अतः बंध एक होते हुए भी उदय तथा उदीरणा की अपेक्षा से तीन प्रकृतियां गिनी जाती हैं । अतः उदय और उदीरणा की अपेक्षा से १२० के स्थान में १२२ प्रकृतियां हैं । किंतु कर्म की सत्ता की दृष्टि से नाम कर्म के उत्तर भेद ६७ की जगह ९३ माने तो १४८ और १०३ माने तो वे १५८ हो जाती हैं ।
ऊपर वर्णन की गई नाम कर्म की ६७ प्रकृतियों में पांच बंधन, पांच संघात ये दस और वर्ण चतुष्क की जगह उसके बीस उपभेद गिनें तो ये १६ - इस प्रकार कुल २६ और मिलाने से ९३ भेद होते हैं। यदि पांच बंधन के स्थान में १५ बंधन मानें तो १०३ भेद होते हैं ।
इन सब प्रकृतियों का वर्गीकरण पुण्य एवं पाप में किया गया है । इस विषय में विशेषावश्यक में निर्देश है, अतः यहां उसका विवेचन अनावश्यक है ।
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इस के अतिरिक्त इन के दो विभाग और किए गए हैं, ध्रुवबंधन और अवधिनी । जो प्रकृतियां बंध हेतु के होने पर भी आवश्यक रूपेण बंध में नहीं आतीं उन्हें अध्रुवबंधिनी कहते हैं और जा हेतु के अस्तित्व में अवश्य बद्ध होती हैं उन्हें ध्रुवबंधिनी कहते हैं ।
उक्त प्रकृतियों का एक और रीति से भी विभाग किया गया है: - ध्रुवोदया और ध्रुवोदया। जिसका उदय स्वोदयव्यवच्छेद
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गाथा १९४६.
२ पंचम कर्मग्रंथ गा० १–४
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