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________________ ( ११७ ) आदि कर्म के नियमानुसार हैं। किंतु भूकम्प जैसे भौतिक कार्यों में कर्म के नियम का लेशमात्र भी हस्तक्षेप नहीं। जब हम जैन शास्त्रों में प्रतिपादित कर्म की मूल और उत्तर प्रकृतियों तथा उनके विपाक पर विचार करते हैं तो यह बात स्वतः प्रमाणित हो जाती है। कर्मबंध और कर्मफल की प्रक्रिया जैन शास्त्रों में इस बात का सुव्यवस्थित वर्णन है कि आत्मा में कर्मबंध किस प्रकार होता है और बद्ध कर्मों की फलक्रिया कैसी है। वैदिक परंपरा के ग्रंथों में उपनिषत् तक के साहित्य में इस संबंध में कोई विवरण नहीं । योगदर्शनभाष्य में विशेषरूपसे इसका वर्णन है। अन्य दार्शनिक टीका ग्रथों में इसके संबंध में जो सामग्री उपलब्ध होती है, वह नगण्य है। अतः यहां इस प्रकिया का वर्णन जैन ग्रंथों के आधार पर ही किया जाएगा। तुलनायोग्य विषयों का निर्देश भी उचित स्थान पर किया जाएगा। लोक में कोई भी ऐसा स्थान नहीं जहां कर्मयोग्य पुद्गल परमाणुओं का अस्तित्व न हो । जब संसारी जीव अपने मन, वचन, काय से कुछ भी प्रवृत्ति करता है, तब कर्मयोग्य पुद्गल परमाणुओं के स्कंधों का ग्रहण सभी दिशाओं से होता है। किंतु इसमें क्षेत्रमर्यादा यह है कि जितने प्रदेश में आत्मा होती है, वह उतने ही प्रदेश में विद्यमान परमाणुस्कंधों का ग्रहण करती है, दूसरों का नहीं। प्रवृत्ति के तारतम्य के आधार पर परमाणुओं की संख्या में भी तारतम्य होता है। प्रवृत्ति की मात्रा अधिक , ' छठे कर्मग्रंथ के हिन्दी अनुवाद में पं० फूलचंद जी की प्रस्तावना देखें—पृ० ४३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001965
Book TitleAtmamimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherJain Sanskruti Sanshodhan Mandal Banaras
Publication Year1953
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Epistemology, & Religion
File Size8 MB
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