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________________ ( ११४ ) ૧ में और बाद में शुद्ध मन होता है । केवली सर्व प्रथम इसका निरोध करता है और तत्पश्चात् वचन एवं काय का निरोध करता है । इसीसे सिद्ध होता है कि जब तक मनका निरोध नहीं हो जाता तब तक वचन और काय के निरोध का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता । वचन और काय का संचालक बल मन है । इस बल के समाप्त होने पर वचन और काय निर्बल होकर निरुद्ध हो जाते हैं । अतः मन, वचन, काय की प्रवृत्तियों में जैनों ने मन की प्रवृत्ति को प्रबल माना है । हिंसा-अहिंसा के विचार में भी काययोग अथवा वचनयोग के स्थान पर मानसिक अध्यवसाय राग तथा द्वेष को ही कर्म बंध का मुख्य कारण माना गया है। इस बात की चर्चा विशेषावश्यक में भी है ?, अतः यहाँ विस्तार की आवश्यकता नहीं । ऐसा होने पर भी बौद्धों ने जैनों पर आक्षेप किया है कि जैन कायकर्म अथवा कायदंड को ही महत्त्व प्रदान करते हैं । यह उनका भ्रम है । इस भ्रम का कारण सांप्रदायिक विद्वेष तो है ही, इसके अतिरिक्त जैनों के आचार के नियमों में बाह्याचार पर जो अधिक जोर दिया गया है, वह भी इस भ्रांति का उत्पादक है। जैनों ने इस विषय में बौद्धों का जो खण्डन किया है, उससे भी यह प्रतीति संभव है कि जैन बौद्धों के समान मन को प्रबल कारण नहीं मानते, अन्यथा वे बौद्धों के इस मत का खंडन क्यों करें । यह लिखने की आवश्यकता नहीं कि जैनों के समान बौद्ध १ विशेषावश्यक गा० ३०५९ – ३०६४. २ गाथा १७६२-६८ ३ मज्झिमनिकाय, उपालिसुत्त २.२.६. ४ सुत्रकृताङ्ग १.१.२. २४-३२, २.६ २६ - २७. विशेष जानकारी के लिए ज्ञानबिन्दु की प्रस्तावना देखें - पृ० ३० - ३५, टिप्पण पृ० ८०-९७ Jain Education International For Private & Personal Use Only 1 www.jainelibrary.org
SR No.001965
Book TitleAtmamimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherJain Sanskruti Sanshodhan Mandal Banaras
Publication Year1953
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Epistemology, & Religion
File Size8 MB
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