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( १११ ) जैन,' सांख्य, बौद्ध,३ योग,४ न्याय वैशेषिक इन सब दर्शनों में दृष्टिगोचर होते हैं। फिर भी वस्तुतः दर्शनों ने पुण्य एवं पाप इन दोनों कर्मों को बंधन ही माना है और दोनों से मुक्त होना अपना ध्येय निश्चित किया है। अतः विवेक शील व्यक्ति कर्म जन्य अनुकूल वेदना को भी सुख रूप न मान कर दुःख रूप ही स्वीकार करते हैं । __कर्म के पुण्य पाप रूप दो भेद वेदना की दृष्टि से किए गए हैं, किन्तु वेदना के अतिरिक्त अन्य दृष्टियों से भी कर्म के भेद किए जाते हैं। कर्म को अच्छा और बुरा समझने की दृष्टि को सन्मुख रख कर बौद्ध और योगदर्शन में कृष्ण, शुक्ल, शुक्ल-कृष्ण, तथा अशुक्लाकृष्ण नामक चार भेद किए गए हैं। कृष्ण पाप है, शुक्ल पुण्य, शुक्ल-कृष्ण पुण्य पाप का मिश्रण और अशुक्लाकृष्ण दोनों में से कोई भी नहीं क्योंकि यह कर्म वीतराग पुरुषों का ही होता है। इसका विपाक न सुख है और नहीं दुःख । कारण यह है कि उनमें रागद्वेष नहीं होता।
इसके अतिरिक्त कृत्य, पाकदान और पाककाल की दृष्टि से भी कर्म के भेद किए गए हैं। बौद्धों के अभिधर्म और
१ पंचम कर्मग्रंथ १५ से तत्त्वार्थ ८.२१ २ सांख्य का. ४४; 3 विसुद्धिमग्ग १७.८८ ४ योग सूत्र २.१४; योग भाष्य २.१२, ५ न्याय मंजरी पृ० ४७२, प्रशस्त पाद पृ० ६३७, ६४३,
६ “परिणामतापसंस्कारदुःखैर्गुणवृत्तिविरोधाच्च दुःखमेव सर्वं विवेकिनः'। योग सूत्र २.१५,
७ योगदर्शन ४.७; दीघनिकाय ३.१.२; बुद्धचर्या पृ० ४९६, ८ योगदर्शन ४.७ ।
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