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________________ ( १०२ ) चित्तव्यापार की उत्पत्ति होती है और उससे धर्म अधर्म रूप संस्कार उत्पन्न होते हैं । क्लेशों को भावकर्म, वृत्ति को योग और संस्कार को द्रव्यकर्म समझा जा सकता है। योगदर्शन में संस्कार को वासना, कर्म और अपूर्व भी कहा गया है। पुनश्च इस मत में क्लेश और कर्म का कार्यकारणभाव जैनों के समान बीजाकुर की तरह अनादि माना गया है ___ जैन और योगप्रक्रिया में अन्तर यह है कि योगदर्शन की प्रक्रियानुसार क्लेश, क्लिष्टवृत्ति और संस्कार इन सब का संबंध आत्मा से नहीं अपितु चित्त अथवा अन्तःकरण के साथ है, और यह अन्तःकरण प्रकृति का विकार-परिणाम है।। यह कहने की आवश्यकता नहीं कि सांख्य मान्यता भी योगदर्शन जैसी ही है। परन्तु सांख्यकारिका व उसकी माठरवृत्ति तथा सांख्यतत्त्वकौमुदी में बंध-मोक्ष की चर्चा के समय जिस प्रक्रिया का वर्णन किया गया है, उसकी जैनदर्शन की कर्म संबंधी मान्यता से जो समानता है, वह विशेषरूपेण ज्ञातव्य है। यह भेद ध्यान में रखना चाहिए कि सांख्य मतानुसार पुरुष कूटस्थ है और अपरिणामी है परन्तु जैन मतानुसार वह परिणामी है। क्योंकि सांख्यों ने आत्मा को कूटस्थ स्वीकार किया अतः उन्होंने संसार एवं मोक्ष भी परिणामी प्रकृति में ही माने। जैनों ने आत्मा के परिणामी होने के कारण ज्ञान, मोह, क्रोध आदि आत्मा में ही स्वीकार किए किंतु सांख्यों ने इन सब भावों को प्रकृति के धर्म माना है। अतः उन्हें यह मानना पड़ा कि उन भावों के कारण बंध मोक्ष आत्मा का-पुरुष का नहीं होता परन्तु प्रकृति का ही होता है। जैन और सांख्य प्रक्रिया में यही भेद है। इस १ योगदर्शनभाष्य १. ५, २. ३; २. १२, २. १३ तथा उसकी तत्त्ववैशारदी, भास्वती आदि टीकाएँ। Jain Education International For Private & Personaf Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001965
Book TitleAtmamimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherJain Sanskruti Sanshodhan Mandal Banaras
Publication Year1953
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Epistemology, & Religion
File Size8 MB
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