SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 108
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भी न्यूनाधिक हो सकता है। किंतु रंग के कारण होते वाली चमक की तीव्रता अथवा मन्दता का उसमें अभाव होता है । इसलिये योग व्यापार की अपेक्षा रंग प्रदान करने वाले कषाय का महत्त्व अधिक है। अतः कषाय को ही भावकर्म कहते हैं। द्रव्य कर्म के बंध में योग एवं कषाय दोनों को ही साधारणतः निमित्त कारण माना गया है, तथापि कषाय को ही भावकर्म मानने का कारण यही है। सारांश यह है कि क्रोध, मान, माया, लोभ-ये चार कषाय अथवा राग द्वेष मोह ये दोष भाव कर्म हैं; इनसे द्रव्य कर्म को ग्रहण कर जीव बद्ध होते हैं । नैयायिक-वैशेषिकों का मत अन्य दार्शनिकों ने इसी बात को दूसरे नामों से स्वीकार किया है। नैयायिकों ने राग, द्वेष और मोह रूप इन तीन दोषों को माना है। इन तीन दोषों से प्रेरणा प्राप्त कर जीवों के मन, वचन, काय की प्रवृत्ति होती है। इस प्रवृत्ति से धर्म व अधर्म की उत्पत्ति होती है। धर्म व अधर्म को उन्होंने 'संस्कार'3 कहा है। नैयायिकों ने जिन राग, द्वेष, मोहरूप तीन दोषों का उल्लेख किया है, वे जैनों को मान्य हैं और जैन उन्हें भाव कर्म कहते हैं। .१ "जोगा पयडिपएसं ठिइअणुभागं कसायाओ" पंचमकर्मग्रंथ गा०९६ । २ उत्तराध्ययन ३२.७, ३०.१०, तत्त्वार्थ ८.२; स्थानांग २.२, समयसार ९४, ९६, १०९, १७७, प्रवचन सार १. ८४, ८८। . 3 न्यायभाष्य १. १. २; न्यायसूत्र ४. १. ३-९; न्यायसूत्र १. १. १७; न्याय मंजरी पृ० ४७१, ४७२, ५०० इत्यादि । "एवं च क्षणभंगित्वात् संस्कारद्वारिक: स्थितः । स कर्मजन्यसंस्कारो धर्माधर्मगिरोच्यते।" न्यायमंजरी पृ० ४७२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001965
Book TitleAtmamimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherJain Sanskruti Sanshodhan Mandal Banaras
Publication Year1953
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Epistemology, & Religion
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy