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अध्याय 37
विदेशों के संग्रहालय
ब्रिटिश म्युजियम, लंदन
ब्रिटिश म्यूजियम में जैन मूर्तिकला की प्रारंभिक कृतियां मथुरा-क्षेत्र की हैं जो गुप्तकाल में लगभग पाँचवीं शताब्दी की निर्मित हैं। इनमें से तीर्थंकरों की तीन प्रतिमाओं के मात्र शीर्ष-भाग ही यहाँ उपलब्ध हैं जो उल्लेखनीय हैं। ये सफेद धब्बोंवाले लाल पत्थर से निर्मित हैं। इन सब प्रतिमाओं में तीर्थंकरों के केश लहरदार घुघराले छल्लों में प्रसाधित हैं तथा दायीं ओर परिवृत्त हैं। इन प्रतिमाओं के प्रायः गोल चेहरे, धनुषाकार भौंहें, चौड़े गाल तथा सुपुष्ट होंठ मथुरा-क्षेत्र के गुप्तकालीन मूर्तिकारों की कलात्मक प्रतिभा का परिचय देते हैं। मात्र एक प्रतिमा में तीर्थंकर के केश रेखामों द्वारा चिह्नित उतार-चढ़ावदार क्रम में व्यवस्थित हैं। तीर्थंकर के एक संदर आवक्ष प्रतिमा-खण्ड में केशावलि को योजनावत् कुण्डलित रूप में अंकित किया गया है (चित्र ३१५ क)। प्रतिमा के वक्षस्थल पर श्री-वत्स-चिह्न अंकित है जो मथुरा एवं अन्य क्षेत्रों में निर्मित गुप्तकालीन समसामयिक तीर्थकर-प्रतिमाओं में भी पाया जाता है। तीर्थकर के सिर के पीछे एक अलंकृत कमलवत प्रभा-मण्डल है जिसकी बाह्य-परिधि पर मोतियों की किनारी तथा लहरियादर डिजाइनें हैं, जिससे ज्ञात होता है कि ये कुषाणकालीन कलात्मक प्रवृत्तियाँ गुप्तकालीन प्रतिमाओं तक में भी प्रचलित रही हैं।
इस संग्रहालय में मध्यकालीन मध्य भारतीय जैन मूर्तिकला को भी अच्छा प्रतिनिधित्व मिला है। इनमें एक प्रतिमा अष्टभुजी यक्षी की है जो अभिलेखांकित पादपीठ से उभरते हुए पद्म-पुष्प पर ललितासन-मुद्रा में है (चित्र ३१५ ख)। वह अपनी सबसे ऊपर की भुजाओं में एक पुष्पमाला धारण किये है; उसकी ये भुजाएँ मुकुट-युक्त शीर्ष के पीछे की ओर उठी हुई हैं। उसकी एक दायीं भुजा में झूलती झालर वाला चक्र है तथा अन्य दोनों भुजाएँ अभय और वरदमुद्रा में हैं । बायीं ओर की भुजाओं में वह एक वृत्ताकार दर्पण, एक शंख और संभवतः एक प्यालेजैसी वस्तु लिये है जो आंशिक रूप से खण्डित हो चुकी है। यक्षी के पार्श्व में दोनों ओर सेवि
1 ऊपरी हाथों में पुष्पमाला धारण किये हुए प्रायः ऐसी ही मुद्रा में प्रदर्शित एक प्राकृति डीडवाना की योग-नारायण
प्रतिमा में देखी जा सकती है. देखिए सिंह (एस) एवं लाल (डी), कैटेलॉग एण्ड गाइड टू सरदार म्यूजियम, जोधपुर, 1960-61. जयपुर, पुष्ठ 8, चित्र 6.
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