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सिद्धांत एवं प्रतीकार्थ
[ भाग १ विश्वकर्मा ने दीपार्णव में1 बावन जिन-प्रासादों का वर्णन किया है जिनमें पच्चीस तो चौबीस तीर्थंकरों के पृथक्-पृथक हैं, नेमिनाथ के दो हैं, और शेष सत्ताइस सामान्य रूप से सभी तीर्थंकरों के हैं। इस प्रकार (१) कमलभूषण (रेखाचित्र ४२), (२) कामदायक, (३) रत्नकोटि, (५) क्षितिभूषण, (६) पद्मराग, (७) पुष्यदंत, (८) सुपार्श्व, (१०) शीतल, (१२) ऋतुराज, (१३) श्रीशीतल, (१६) श्रेयांस, (१६) वासुपूज्य, (२१) विमल, (२३) अनंत, (२४) धर्मद, (२७) श्रीलिंग, (२६) कुमुद, (३२) कमलकंद, (३५) महेंद्र, (३८) मानसंतुष्टि, (४०) नमिशृंग, (४१) सुमतिकीर्ति, (४७) पार्श्ववल्लभ और (५०) वीर-विक्रम (रेखाचित्र ४३) नामक प्रासाद क्रमशः ऋषभनाथ आदि चौबीस तीर्थंकरों के हैं; और (४४) नेमेंद्र नामक प्रासाद नेमिनाथ का दूसरी बार है; (४) अमृतोद्भव, (६) श्रीवल्लभ, (११) श्रीचंद्र, (१४) कीर्ति-दायक, (१५) मनोहर, (१७) सुकुल, (१८) कुलनंदन, (२०) रत्नसंजय, (२२) मुक्ति , (२५) सुरेंद्र, (२६) धर्मवृक्ष, (२८) कामदत्तक, (३१) हर्षण, (३३) श्रीशैल, (३४) अरिनाशन, (३६) मानवेंद्र, (३७) पापनाशन, (४२) उपेंद्र, (४३) राजेंद्र, (४५) यतिभूषण, (४६) सुपुष्य, (४८) पद्मव्रत (४६) रूपवल्लभ, (५१) अष्टापद और (५२) तुष्टि-पुष्टि प्रासाद सामान्य रूप से सभी तीर्थंकरों के हैं; (३०) शक्ति नामक प्रासाद लक्ष्मी देवी का; और (३६) श्रीभव (गौरव) प्रासाद ब्रह्मा, विष्णु और शिव का है।
गह-मंदिर और वहनीय मंदिर
आवासगृह में भी धर्मस्थान या मंदिर के निर्माण का विधान ग्रंथों में किया गया है। यह आवासगृह के उत्तर-पूर्व कोण में बनाया जाये और यद्यपि इसपर आधिपत्य गृहस्वामी का रहे और इसकी व्यवस्था भी वही करे तथापि यह सबके लिए खुला रखा जाये। ऐसे गृह-मंदिरों का स्थापत्य अन्य मंदिरों की ही भाँति हो। वह केवल काष्ठ से निर्मित हो, और उसमें एक उपपीठ, एक पीठ आदि अंग हों। चारों कोणों पर एक-एक स्तंभ, चारों ओर एक-एक द्वार और छज्जा, एक शिखर तथा उसके चारों कोणों पर एक-एक लघुशिखर हों, शिखर पर ध्वज कदापि स्थापित न किया जाये। इसके अतिरिक्त सर्वोपरि यह ध्यान रखा जाये कि गृह-मंदिर के निर्माण में केवल न्यायोपार्जित धन का उपयोग हो । मंदिर के काष्ठ से निर्माण की अनुमति उस स्थिति में भी है जब उसे यात्रा में साथ रखने के लिए बनाया जाये, ऐसे वहनीय मंदिर को यात्रा के पश्चात् रथशाला में सुरक्षित रख दिया जाये ताकि उसका पुनः उपयोग किया जा सके ।
लोकविद्या और स्थापत्य
स्थापत्य के सिद्धांतों और प्रतीक-विधानों के विषय में साहित्य-ग्रंथों से निस्संदेह अनेकानेक सूचनाएं प्राप्त होती हैं, किन्तु उससे भी अधिक सूचनाएं और संकेत इस विषय में लोकविद्या के ग्रंथों
(उत्तरखण्ड
1 विश्वकर्मा का दीपार्णव, अनुवादक (गुजराती में) प्रभाशंकर अोषडभाई सोमपुरा, पृ. 317-18
की अतिरिक्त मुद्रित प्रति के पृ 9-10), पालीताना.
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