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अध्याय 20
उत्तर भारत
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दियों में भारत के उत्तरी भाग के अधिकांश क्षेत्र पर जिन दो प्रमुख राजनीतिक शक्तियों ने अपना प्रभुत्व स्थापित किया वे थीं चाहमान और गाहड़वाल शक्तियाँ । इस कालावधि के कलात्मक, साहित्यिक और धार्मिक क्रिया-कलाप न केवल विकास के उच्च स्तर की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं अपितु इस दृष्टि से भी कि वे हमारे युगीन सांस्कृतिक विकास की सतत श्रृंखला के अंतिम चरण के प्रतीक हैं। मध्ययुग में, भारत के उत्तरी भाग में, एक ओर जहाँ कला और साहित्य ने पारंपरिक विकास का मार्ग अपनाया, वहीं धार्मिक विकास ने, परस्परविरोधी दार्शनिक विचारधाराओं के होते हुए भी, देश, जाति और कुलधर्म की सीमा के भीतर रहते हुए, अनुकूलनीयता एवं सहिष्णुता का परिचय दिया। जैन, ब्राह्मण और अन्य मत साथ-साथ फले-फूले और राजकुलों ने विलक्षण उदार दृष्टिकोण बनाये रखा तथा धार्मिक संस्कारों एवं विश्वासों के विषय में अपने प्रजाजनों के प्रति सम्मान प्रदर्शित किया।
शाकंभरी के चाहमान, जिन्होंने दसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में ख्याति प्राप्त की, कला और साहित्य के आश्रयदाता थे। यद्यपि वे ब्राह्मण मतावलंबी थे, तदपि उन्होंने पर्याप्त सीमा तक जैन धर्म को प्रोत्साहित किया। चंद्रसूरि के मुनिसुव्रत-चरित (विक्रम संवत् ११९३ = ११३६-३७ ईसवी) के अनुसार पृथ्वीराज-प्रथम ने रणथम्भौर के जैन मंदिर पर स्वर्णकलश चढ़ाकर जैन धर्म के प्रति अपना आदर व्यक्त किया था। उसके पुत्र अजयराज ने न केवल अपनी नयी राजधानी अजयमेरु (अजमेर) को जैन मंदिरों से सुशोभित होने का अवसर दिया अपितु वहाँ स्थित पार्श्वनाथ-मंदिर को स्वर्णकलश भी समर्पण किया। इसी प्रकार यह कहा जाता है कि अर्णोराज ने जैन आचार्य जिनदत्त-सूरि के अनुयायियों को एक मंदिर के निर्माण के लिए भूमि प्रदान की थी तथा यह भी कहा जाता है कि वे श्वेतांबर आचार्य धर्मघोष-सूरि और दिगंबर पण्डित गुणचंद्र के बीच शास्त्रार्थ में निर्णायक भी बने थे।
1 पुहरायेण सयंभरी-नरिन्देण जस्स-लेहेण रणखंभौर जिणहरे चडविया कनय-कलशा-शर्मा (दशरथ). प्रों
चौहान डायनेस्टीज, 1959. दिल्ली. 38.
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