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अध्याय 19 ]
दक्षिण भारत
नाम उल्लिखित हैं और ऐसी एक शय्या (अदिट्टाणम) स्वयं चेण्कायपन के लिए थी। पुगलूर एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण जैन केंद्र था, यह तथ्य वहाँ के एक विशाल प्रतिष्ठान से प्रमाणित होता है। इसमें उसी पर्वत पर चार शैलाश्रय हैं जिनमें लगभग तीस मुनियों के आवास की व्यवस्था है। जैसाकि अभिलेखों से ज्ञात होता है, ये मुनि अधिकतर समीपवर्ती ग्रामों के निवासी थे। यह बात ध्यान देने योग्य है कि दक्षिण भारत में जैन धर्म के प्रारंभिक काल का प्रतिनिधित्व पूर्वी तट पर यत्र-तत्र विद्यमान ये शैलाश्रय करते हैं, किन्तु पश्चिमी तट पर, विशेष रूप से केरल की वर्तमान राजनीतिक सीमाओं के अंतर्गत, इस युग के निर्माण कार्य ने कोई प्रगति नहीं की।
केरल में जैन धर्म का उदय कदाचित् उस समय हुआ जब नौवीं शताब्दी में चेर वंश अपनी नयी राजधानी महोदयपुरम (आधुनिक तिरुवंचिकुलम, जिला त्रिचूर) में पुनरुज्जीवित हुआ। अभिलेखीय और साहित्यिक तथ्यों के अनुसार इस काल में, चेर राजधानी के समीप कहीं स्थित तिरुक्कुणवाय मंदिर एक विशाल जैन केंद्र था। कन्नानोर जिले में तलक्क की जैन बस्ती में उपलब्ध एक अभिलेख में आठवीं शती के आरंभ में तिरुक्कुणवाय-मंदिर की स्थापना का उल्लेख है। निस्संदेह, ये निर्मित-शैली के मंदिर थे, किन्तु जैन आवासों के रूप में शैलाश्रयों के उपयोग की परंपरा नौवीं शताब्दी में केरल में भी थी। इस काल में निर्मित केरल के सभी वास्तु-स्मारक दो वर्गों में रखे जा सकते हैं-शैलाश्रय और निर्मित-मंदिर । प्रथम वर्ग के मंदिर अभी तक सुरक्षित हैं, भले ही वे भगवती-मंदिर के रूप में परिवर्तित कर लिये गये हों, किन्तु निर्मित-मंदिरों के मूलस्वरूप को खोज पाना कठिन है।
प्राचीन पाय राज्य का सर्वाधिक प्रभावशाली शैलाश्रय (चित्र १३६ क) कन्याकुमारी जिले में चितराल के निकट तिरुच्चरणत्तुमलै नामक पहाड़ी पर स्थित है । प्राकृतिक गुफा के पार्श्व में ऊपर लटकती हुई शिला से बने शैलाश्रय में बहुत-सी तीर्थंकर-मूर्तियाँ (चित्र १३६ ख) और दूर-दूर से आये दर्शनार्थियों द्वारा अभिलेख सहित उत्कीर्ण करायी गयी पूजार्थ मूर्तियाँ हैं। इन शिल्पांकनों में
ब्राह्मी इंस्क्रिप्शंस, सेमिनार मॉन इंस्क्रिप्शंस. 1966. 1968. मद्रास. पृ 65-67./कृष्णन (के जी). चेर किंग्ज़ ऑफ द पुगलूर इंस्क्रिप्शंस. जर्नल ऑफ एंश्येण्ट इण्डियन हिस्ट्री. 4; 1970-71; पृ 137-43. / [ 104 भी
द्रष्टव्य-संपादक]. 1 नारायणन (एम जी एस). न्यू लाइट ऑन कुण्वायिर्कोट्टम एण्ड द डेट ऑफ शिलप्पदिकारम. जर्नल प्रॉफ इण्डियन हिस्ट्री. 48; 1970; 691-703./ नौवीं से ग्यारहवीं शताब्दियों में अनेक मंदिर इस मंदिर के आदर्श पर बने
और जैसी कि अनुश्रुति है, शिलप्पदिकारम के लेखक इलंगो अडिगल ने यहाँ संन्यास के अनंतर पाश्रय लिया था। यह उल्लेखनीय है कि ग्यारहवीं शताब्दी के दो मंदिरों-कोजीकोड जिले के किनलूर स्थित शिव मंदिर और कोजीकोड स्थित अर्धवृत्ताकार प्रायोजना का तिरुवन्नुर मंदिर--के अभिलेखों में परोक्ष उल्लेख है कि तिरुक्कुणवाय में
एक जैन मंदिर था। 2 राव (टी ए गोपीनाथ). जैन एण्ड बौद्ध वेस्टिजेज़ इन त्रावन कोर. त्रावनकोर प्राक्यिॉलॉजिकल सीरीज. 2, भाग 23 1919. त्रिवेन्द्रम. पृ 125-27.
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