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________________ श्रध्याय 19 ] दक्षिण भारत हुए, धनुष को दायें हाथ से और वाण को बायें हाथ से संधान की स्थिति में पकड़े हुए, प्रस्तुत की गयी है । सिंहवाहन के समक्ष अपने हाथों में ढाल - कृपाण लिये गजारूढ़ पुरुष है । यह संयोजन पूर्वोक्त मलैडिक्कुरुचि के शैलोत्कीर्ण गुफा मंदिर की विकृत मुखी प्रतिमायुक्त फलकों की स्मृति दिलाता है (पृ २१२) । इसके पश्चात त्रिछत्रों के नीचे पादपीठ पर आसनस्थ तीर्थंकरों की तीन फलकें हैं । पाँचवीं और अंतिम फलक पर बायें पैर को मोड़कर तथा दायें को नीचे लटकाकर बैठी हुई यक्षी अंकित है। वह दायें हाथ में कमलकली लिये हुए है जबकि बायाँ हाथ उसकी गोद में रखा है । स्पष्टतः वह पद्मावती है। पहाड़ी की पूर्वी ढाल के ठीक दक्षिणी छोर पर पेच्चिपल्लम नामक स्थान है जहाँ ऊपरी चट्टान के सामने एक समतल -सा धरातल है । यहाँ जैन प्रतिमाओं की एक पंक्ति है जिनमें सुपार्श्वनाथ की पाँच कायोत्सर्ग-प्रतिमाएँ हैं । यहाँ पर इन प्रतिमाओं से संबद्ध छह वट्टेजुत्त अभिलेख हैं ! अन्य दो मूर्तियाँ आसनस्थ तीर्थंकरों की हैं। जैसाकि शिलालेखों से ज्ञात होता है ये मूर्तियाँ समर्पण के लिए हैं । इसी प्रकार की सुनिर्मित प्रतिमाएँ मदुरै के निकट नागमले पहाड़ी पर मिली हैं । किलेयूर - कीलवलवु की पंचपाण्डवमले भी इस अवधि की विशाल शिलाखण्डों पर उत्कीर्ण जैन प्रतिमात्र के लिए उल्लेखनीय स्थान है । इनमें तीर्थंकर और यक्षी जैसी देवियों की मूर्तियाँ हैं । इस स्थान को पल्लिक्कुडम कहते हैं । इसी प्रकार कुप्पलनाथम की पोयगेमले और उत्तमपलैयम की करुप्पन्नसामि चट्टान पर ( चित्र १३६ ख ) जैन प्रतिमाएं उत्कीर्ण हैं । उनमें अधिकांशतः प्रादिनाथ, नेमिनाथ और अन्य तीर्थंकरों की प्रतिमाएँ हैं। उनसे संबद्ध अभिलेखों से इनकी पूजनीय स्थिति और निर्माण-काल का संकेत मिलता है । ऐवरमलै नामक प्राकृतिक गुफा में भी जैन तीर्थंकरों और पक्षियों की मूर्तियाँ वट्टेत्तु लिपि में समर्पण अभिलेखों के साथ हैं । उनमें से ६७० ई० की एक प्रतिमा पाण्ड्य नरेश वर्गुण वर्मन के राज्यकाल की है जिसमें इस स्थान पर प्रतिष्ठापित पार्श्वनाथ की प्रतिमा के हेतु प्रदत्त दान का उल्लेख है । तिरुनेलवेली जिले के इरुवडि नामक स्थान की इरट्टपोट्टे चट्टान पर एक प्राकृतिक गुफा है । इस गुफा के पर लटकते हुए शिलाखण्ड के पर निम्न उद्धृत शैली की जैन मूर्तियों की एक श्रृंखला वट्टेत्तु लिपि में समपर्ण - अभिलेखों के साथ अंकित है । उत्तमपलयम और प्रय्यमप तैयम (ऐवरमल) के समान जैनाचार्य अज्जमंदि का उल्लेख यहाँ के अभिलेखों में भी है जो उनके समसामयिक होने का संकेत करता है । सिंगीकुलम को पहाड़ी पर स्थित भगवती मंदिर पहले एक यक्षी का जैन मंदिर था । साक्षी के रूप में इसके गर्भगृह में विद्यमान तीर्थंकर की एक प्रतिमा है जिसे अब गौतम ऋषि कहा जाता है । सर्वाधिक उल्लेखनीय आठवीं - नौवीं शताब्दियों को जैन प्रतिमाओं (चित्र १३७ क, १३७ ख, और १३८ ) की एक श्रृंखला वट्टेजुत्तु अभिलेखों के साथ कलुगुमले में मिली है । इन शिल्पांकनों में धरणेंद्र और पद्मावती के साथ पार्श्वनाथ, अंबिका और अन्य तीर्थंकरों की मूर्तियाँ उल्लेखनीय हैं । इस प्रकार देखा जा सकता है कि प्राचीन शय्यानों से युक्त और ब्राह्मी अभिलेखांकित प्राकृतिक गुफाएँ ६०० से १००० ई० की अवधि में विकास के दूसरे चरण तक आवास के हेतु प्रयोग में Jain Education International 231 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001959
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size26 MB
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