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वास्तु-स्मारक एवं मूर्तिकला 600 से 1000 ई.
[ भाग 4
में पहाड़ी की ऊँचाई और उसके आकार-प्रकार ने संतुलित किया है तथा परंपरागत मान्यता के अनुसार जिस पहाड़ी चोटी पर बाहुबली ने तपश्चरण किया था वह पीछे की ओर अवस्थित है और आज भी इस विशाल प्रतिमा को पैरों और पाश्वों के निकट आधार प्रदान किये हुए है, अन्यथा यह प्रतिमा और भी ऊँची होती। जैसाकि फग्र्युसन ने कहा है : 'इससे महान और प्रभावशाली रचना मिश्र से बाहर कहीं भी अस्तित्व में नहीं है और वहाँ भी कोई ज्ञात प्रतिमा इसकी ऊंचाई को पार नहीं कर सकी है। मिश्र की विशाल प्रतिमाओं में रैमजेस की मूर्ति तथा अफगानिस्तान में बामियान पर्वतश्रृंगों के अग्रभागों पर उत्कीर्ण महान बुद्ध की प्रतिमाएँ सर्वोत्तम शिल्पांकन हैं जबकि गोम्मटेश्वर-मूर्ति घुटनों से ऊपर की ऊँचाई में गोलाकार है और उसका पृष्ठभाग अग्रभाग के समान सुरचित है।
इसके अतिरिक्त है समूचे शरीर पर दर्पण की भाँति चमकती पालिश जिससे भूरे-श्वेत ग्रेनाइट प्रस्तर के दाने भव्य हो उठे हैं; और भव्य हो उठी है इसमें निहित सहस्र वर्ष से भी अधिक समय से विस्मृत अथवा नष्टप्राय वह कला जिसे सम्राट अशोक और उसके प्रपौत्र दशरथ के शिल्पियों ने उत्तर भारत में गया के निकट बराबर और नागार्जुनी पहाड़ियों की आजीविक गुफाओं के सुविस्तृत अंतःभागों की पालिश के लिए अपनाया था । ऊंचे पहाड़ी शिखर पर खुले आकाश में स्थित प्रतिमा को धूप, ताप, शीत, वर्षा घर्षणकारी धूल और वर्षा भरी वायु के थपेड़ों से बचाने में इस पालिश ने रक्षाकवच का कार्य किया है । यह ऐसा तथ्य है जिसे इस प्रतिमा के निर्माताओं ने भली-भाँति समझ लिया था। एलोरा और अन्य स्थानों की गोम्मट-प्रतिमाओं से भिन्न, इस मूर्ति की देह के चारों ओर सर्पिल लताएँ बड़े ही नियंत्रित कौशल के साथ अंकित की गयी हैं और उनके पल्लव एक दूसरे से उचित पानुपातिक दूरी पर इस प्रकार अंकित किये गये हैं कि उनसे प्रतिमा की भव्यता कम न हो।
कर्नाटक प्रदेश के कार्कल (१३४२ ई०), वेणूर (१६०४ ई०) और बगलौर के निकटवर्ती एक स्थान (गोम्मटगिरि) की तीन परवर्ती गोम्मट-प्रतिमाओं का इस मूर्ति के शिल्प-सौंदर्य या आकार से कोई साम्य नहीं है। शरीर के सामान्य आकार के अनुपात में घुटनों से नीचे टाँगों का उचित माप में अंकन, छट है जो मूल चट्टान के माप के अनुसार किया गया प्रतीत होता है, पार्श्ववर्ती शिला और उसपर अंकित चीटियों की बाबियों, सों और लताओं की अपेक्षा कहीं अधिक स्पष्ट है। मूर्ति के शरीरांगों के अनुपात के चयन में मूर्तिकार पहाड़ी-चोटी पर निरावृत मूर्ति की असाधारण स्थिति से भली-भांति परिचित था। यह स्थिति उस अण्डाकार पहाड़ी की थी जो मीलों विस्तृत प्राकृतिक दृश्यावली से घिरी थी। मृति वास्तविक अर्थ में दिगंबर होनी थी, अर्थात् खुला आकाश ही उसका वितान और वस्त्राभरण होने थे। मूर्तिकार की इस निस्सीम व्योम-वितान के नीचे अवस्थित कलाकृति को स्पष्ट रूप से इस पृष्ठभूमि के अंतर्गत देखना होगा और वह भी दूरवर्ती किसी ऐसे कोण से जहाँ से समग्र आकृति
1 फग्यूसन (जेम्स). हिस्ट्री प्रॉफ इण्डियन एक ईस्टर्न प्राकिटेक्चर. 1910. लंदन. पृ 72.
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