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मध्याय 30]
भित्ति-चित्र अंकन की दृष्टि से कांचीपुरम् के तिरुप्परुत्तिक्कूण्रम्-स्थित वर्धमान-मंदिर के संगीत-मण्डप में जैन चित्र विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। कुछ चित्र प्रारंभिक कालीन हैं जबकि अधिकांशतः चित्र बहुत परवर्ती काल के हैं। प्रारंभिक, जो आंशिक रूप में बच रहे हैं, मात्र विषय-वस्तु के अंकन की दृष्टि से ही नहीं अपितु इस काल की कला के अध्ययन में जो उसे विशेष स्थान प्राप्त है उसकी दृष्टि से भी अत्यंत उल्लेखनीय हैं । यह मण्डप बुक्कराय-द्वितीय के जैन धर्मानुयायी मंत्री इरुगप्प ने बनवाया था, अतः इसके चित्र इस काल के चौदहवीं शताब्दी के अंतिम काल के चित्रकार की कला-कुशलता को प्रदर्शित करते हैं। इसके चित्रों की विषय-वस्तु वर्धमान के जीवन से संबद्ध है । इन चित्रों में एक चित्र तीर्थंकर वर्धमान के जन्म से संबंधित है जिसमें प्रियकारिणी उन्हें जन्म देती दर्शायी गयी हैं। दक्षिण भारतीय चित्रों तथा केरल की शिल्पकला, इन दोनों में, शिशु को जन्म देने की विषय-वस्तु विशेष रूप से लोकप्रिय रही है। केरल के मूर्ति-शिल्पों में रामायण ने इस विषय-वस्तु को चित्रित करने का बहुत अवसर प्रदान किया है। अतः इस विषय-वस्तु के चित्रों के तुलनात्मक अध्ययन की विशेष रूप से आवश्यकता है। सौधर्मेंद्र की अपनी पत्नी शची सहित शिशु-जन्म तथा उसके अभिषेक-संस्कार-उत्सव मनाने का दृश्य आकर्षक रूप से अंकित किया गया है जो आकार, रंग-ढंग, तौर-तरीके, स्वभाव तथा इस काल के वस्त्राभूषण और अलंकरणों आदि प्रत्येक दृष्टि से विशिष्ट रूप लिये हुए है। इसी प्रकार का एक अन्य रोचक चित्र है जिसमें सौधर्मेंद्र को तीर्थंकर वर्धमान के समक्ष नृत्य करते हुए दर्शाया गया है। इस चित्र में नृत्यरत-मुद्रा में सौधर्मेंद्र के पैर पाद-स्वस्तिक मुद्रा में हैं।
तेलीकोटा के युद्धोपरांत विजयनगर साम्राज्य के क्षीण होने के बाद भी कला को परवर्ती अधिकारधारी सम्राटों तथा इस समय के अत्यंत प्रभावशाली नायक शासकों का संरक्षण निरंतर मिलता रहा । तिरुप्परुत्तिक्कुण्रम् स्थित उत्तरकालीन सोलहवीं-सत्रहवीं शताब्दी के चित्र नायकवंशीय शासकों के राज्यकाल से संबंधित हैं। ऋषभदेव, वर्धमान, तीर्थकर नेमिनाथ तथा उनके भतीजे कृष्ण के जीवनचरित्र संबंधी सभी चित्र लंबी चित्रमालाओं में सविस्तार अंकित किये गये हैं और इनपर तमिल भाषा में लिखे शीर्षक अंकित हैं जो प्रत्येक दृश्य की स्पष्टतः व्याख्या करते हैं; जैसे कि चिदंबरम्, तिरुवलूर आदि । अनेक स्थलों पर चित्रों के साथ शीर्षक पाये गये हैं। इससे स्पष्ट है कि विजयनगरकालीन कला में शीर्षकों के अंकन की एक सामान्य परिपाटी प्रचलित रही है। यहाँ तक कि मंदिरों में लटकाये जानेवाले चित्रों में शीर्षकों का अंकन चित्र की विषय-वस्तु की व्याख्या की एक नियमित परिपाटी बन गयी थी। ये शीर्षक क्षेत्रानुसार तमिल या तेलुगु भाषा में लिखे जाते थे। तिरुप्परुत्तिक्कुण्रम् में ये शीर्षक तमिल भाषा में हैं और पत्रों पर लेख भी तमिल ग्रंथलिपि में हैं।
हा
ऋषभदेव के जीवन की गाथाओं के चित्रांकन में दर्शाया गया है कि किस प्रकार लोकांतिक देवों ने ऋषभदेव को याद दिलाया कि यही समय है कि वे संसार को त्याग कर दीक्षा धारण करें (चित्र २६१), तथा किस प्रकार कच्छ एवं महाकच्छ तथा उनके अन्य उपासकों ने संसार को त्यागने का प्रयास किया, परंतु वे कड़ाके की सदी एवं भूख को सह नहीं सके इसलिए उन्होंने कपड़े पहन लिये और खाने-पीने लगे; किस प्रकार नमि और विनमि ने गंभीर ध्यानावस्थित ऋषभदेव से यह तर्क-वितर्क किया था कि वे अपने राज्य का भाग उन्हें दे दें (चित्र २६२); तथा किस प्रकार
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