________________
अध्याय 30]
भिति-चित्र
बजा रहे हैं (रंगीन चित्र ११), आदि-आदि। ये सब ऐसी उल्लेखनीय उत्कृष्ट कृतियाँ हैं जो नोलंब चित्रकारों की तूलिका से निःसत हई हैं। दक्षिणापथ के एक महान् राजवंश राष्ट्रकूट के प्रभुत्व-काल में रचे गये भित्ति-चित्रों में संभवतः ये ही चित्र सुरक्षित बच रहे हैं। इस काल की कला ने समूचे भारतउत्तर, दक्षिण, पूर्व और पश्चिम की समकालीन शासन-काल की कलाओं पर प्रभाव डाला।
चोल, जो नौवीं शताब्दी में एक बार पुनः विजयालय के अंतर्गत राजसत्ता में आये थे, उदार शासक थे। उन्होंने अपने धर्म शैवमत के प्रति विशेष अनुरक्ति के साथ-साथ सभी धर्मों को समान भाव से प्रश्रय दिया । राजराज, जिसने तंजावुर में अपने नाम पर राजराजेश्वर नामक भव्य शिव-मंदिर का निर्माण कराया, कला के प्रति इतनी गहरी अभिरुचि रखता था कि उसे 'नित्य-विनोद' अर्थात् 'सदैव कला में आनंद लेने वाले के उपनाम से जाना जाता था। जैन धर्म को दिये गये उसके उदार दानों से ज्ञात होता है कि वह जैन धर्म का एक महान् प्रश्रयदाता था। उसकी बहन कुंदवइ ने भी तिरुमलै तथा अन्य स्थानों पर जैन मंदिरों का निर्माण कराया तथा दान दिये । जैन स्मारकों में जो चोलकालीन चित्र हैं वे नर्तमल के बाद के हैं। तिरुमले के चित्र और मूर्तियाँ,स्मिथ के अनुसार, एक साथ खराब नहीं हुए। तिरुमल के चित्र विजयनगर और चोल-शैली के सम्मिलन से निर्मित हैं, जो चोलकालीन कला के अंतिम चरण की कला है। लक्ष्मीश्वर-मण्डप के निचले तल पर बाह्य कक्ष में ईंट निर्मित भित्तियों पर चित्रित कल्पवासी देवों का समूह प्रारंभिक चित्रित सतह के चित्र हैं। ये चित्र प्रायः उत्तरवर्ती शैली में अंकित हैं जिनमें उनकी आकृतियाँ मोहक हैं। प्राकृतियाँ रत्नाभूषणों से अलंकृत एवं उनकी आँखें विस्तृत रूप से अंकित हैं। भित्ति-चित्रों की दूसरी सतह लगभग विजयनगर-शैली में चित्रित है।
लगभग इस काल में पश्चिम मैसूर में होयसल-वंशीय शासक राजसत्ता में आये। इस वंश के शासकों में विष्णुवर्धन (सन् ११०६-४१) एक महान शासक था जो मूलरूप में बित्तिदेव या बित्तिग के नाम से जाना जाता था। इसे रामानुज द्वारा जैन धर्म से परिवर्तित कर वैष्णव धर्म दीक्षित किया गया था। इसने बेलुर और हलेबिड में कुछ ऐसे अत्यंत सुंदर मंदिरों का निर्माण कराया जिन्होंने होयसल-कला को प्रसिद्धि प्रदान की है। यह शासक एक निष्ठावान् वैष्णव मतावलंबी था और इसकी रानी जैन धर्मानुयायी थी लेकिन यह उन इक्ष्वाकु शासकों की भाँति उदार-हृदय व्यक्ति था जो स्वयं तो ब्राह्मण धर्मानुयायी थे लेकिन परिवार की राजकुमारियाँ बौद्ध धर्मानुयायी थीं। विष्णुवर्धन के गंगराज और हुल्लि दण्डनायक जैसे मंत्री एवं सेनानायक भी जैन धर्मानुयायी थे । यद्यपि होयसल शासकों के समूचे साम्राज्य क्षेत्र में उपलब्ध होयसल-कला की प्रतिमापरक अमूल्य निधि स्थापत्य और शिल्पकला की उत्कृष्टतम कलाकृतियों के माध्यम से प्रकट है तथापि, अभी तक भित्ति-चित्र-कला का कोई भी साक्ष्य उपलब्ध नहीं हो सका है। लेकिन, सौभाग्यवश होयसल-काल
1 स्मिथ (वी ए). हिस्ट्री ऑफ़ फाइन प्रात्स इन इण्डिया एण्ड सीलोन, द्वितीय संस्करण, तथा कॉड्रिंग्टन द्वारा
संशोधित, 1930, ऑक्सफ़ोर्ड, 140.
391
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org