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अध्याय 29]
दक्षिणापथ
वे कजुलुर की मूर्ति के समान हैं। वारंगल के किले से प्राप्त पार्श्वनाथ की खड़ी मूर्ति (चित्र २५६ क) चौदहवीं शती की प्रतीत होती है। इसकी शैली में काकतीय कला के लक्षण दृष्टिगत होते हैं। इस मूर्ति-फलक पर मुख्य मूर्ति के पीछे तेईस तीर्थंकरों की लघु मूर्तियाँ, चमरधारी, सप्त-फणावली-सहित सर्प और ऊपर मुक्कुडे के सुंदर सानुपात अंकन हैं। उत्तरवर्ती कालों की कृतियों में निंद्रा की तीर्थंकरमूर्ति, चिप्पगिरि की एक निषीधिका के पाषाण-खण्ड पर उत्कीर्ण मूर्तियाँ, निजामाबाद जिले से प्राप्त एक चौबीसी मूर्ति-फलक और बैरमपल्ली से प्राप्त गोम्मट की एक मूर्ति उदाहरण के रूप में प्रस्तुत की जा सकती हैं। इनका निर्माण पंद्रहवीं शती में और उसके बाद हुआ।
दक्षिणापथ में जैनों द्वारा उत्तर-मध्यकाल में निर्मित मूर्तियों की यह संक्षिप्त रूपरेखा समाप्त करने से पूर्व यह उल्लेखनीय है कि श्रवणबेलगोला, मूडबिद्री (चित्र २५६ ख, २५७ क, ख और २५८), वेणर आदि जिन स्थानों पर जैनों को कोई बाधा उपस्थित न की गयी वहाँ उन्होंने विपूल संख्या में मूर्तियों का निर्माण किया जिनमें अधिकांश धातु की हैं और पिछली कई शतियों की कृतियाँ हैं। कला के उत्तरकालीन उदाहरण श्रवणबेलगोला के जैन मंदिरों में विद्यमान हैं।।
पी०आर० श्रीनिवासन्
1 एपिनाफिका कर्नाटिका, 2, 1923, 4 29 तथा परवर्ती; विशेष रूप से चित्र 44 और 45.
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