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________________ बास्तु-स्मारक एवं मूर्तिकला 1300 से 1800 ई० [ भाग 6 पहाड़ियों की इतनी ऊँचाई पर स्थापित हैं कि उनके दर्शन बड़ी दूर से हो सकते हैं । कार्कल की (चित्र २५५) लगभग १२१ मीटर ऊँची मूर्ति नाइस नामक कठोर श्याम पाषाण से बनी है। इसका भार अनुमानत: ८० टन है और यह करतलों तक ऊँची पीछे खड़ी एक शिला का आधार लिये हए है। इसका मण्डलाकार पादपीठ सहस्रदल-कमल के पुष्पांकन में समाविष्ट है । यह विशाल मूर्ति पाषाणनिर्मित अधिष्ठान पर स्थित है जिसके चारों ओर पाषाण से ही निर्मित एक वेदिका और लैटराइट नामक मिट्टी से बने दो प्राकार हैं। अंगूर की बेलें (द्राक्षा-वल्लरी) उसके चरणों और भुजाओं का आलिंगन कर रही हैं। पीछे की शिला पर मूर्ति के चरणों के पास दोनों ओर अनेक सों का अंकन हुआ है। उसी शिला के पार्श्वभागों पर उत्कीर्ण दो अभिलेखों में वृत्तांत है कि बाहुबली अर्थात् गोम्मट-जिनपति की यह मूर्ति १४३१-३२ ई० में भैरव के पुत्र वीर पाण्ड्य नामक सेनापति ने स्थापित की थी। इसी सेनापति का एक अभिलेख बाह्य प्रवेश-द्वार के सम्मुख स्थित एक सुरुचिपूर्ण स्तंभ पर भी उत्कीर्ण है। पाषाण-निर्मित वेदिका से आवेष्टित इस स्तंभ के शीर्ष-भाग पर ब्रह्मदेव की एक आसीन मूर्ति स्थापित है। वेणूर की लगभग ११ मीटर ऊँची मूर्ति कार्कल की मूर्ति के ही समान है, केवल पालेखनों में कुछ साधारण अंतर है। यहाँ के अभिलेखों के अनुसार इसे एनूरु में चामुण्ड परिवार के तिम्मराज ने १६०३-१६०४ ई० में स्थापित कराया था। किन्तु कपोल-कूपक और गंभीर तथा प्रशांत स्मिति' इस मूर्ति की उल्लेखनीय विशेषताएँ हैं। कपक की इतनी गहराई अच्छे प्रभाव में बाधक मानी जाती है। मैसूर से लगभग २५ किलोमीटर दूर मैसूर-हंसूर मार्ग की दाहिनी ओर स्थित गोम्मटगिरि नामक पहाड़ी पर भी गोम्मट की एक सुंदर मूर्ति है। इस मूर्ति की संयोजना प्रकृतिरम्य है। अन्य मूर्तियों की भाँति इस खड्गासन मूर्ति के भी चरणों, जंघाओं, भुजाओं और स्कंधों का आलिंगन नाएं कर रही हैं। मस्तक पर घंघराले केशों का अंकन रमणीय है। मख-मण्डल पर ईषत स्मिति है और नेत्र प्रशांत हैं। करतल दोनों ओर उत्कीर्ण सों की फणावली को छु रहे हैं। किन्तु यहाँ सो को चीटियों की बांबियों से निकलता हा नहीं दिखाया गया है । कला की दृष्टि से यह मूर्ति चौदहवीं शती की मानी जा सकती है। अन्य मूर्तियां दक्षिणापथ के विभिन्न भागों में इस काल की खड्गासन या पद्मासन में निर्मित असंख्य तीर्थंकर-मतियों का परिज्ञान होता है। सामान्यत: ये मूर्तियाँ उसी पाषाण की होती हैं जो उन स्थानों । एनुअल रिपोर्ट प्रॉफ साउथ इण्डियन एपिप्राफ़ी फ़ॉर 1901, पृ4. 2 वही, पृ 4-5. 3 स्मिथ, वही, पृ268. 380 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001959
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size26 MB
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